रूसी त्सीगाने | Tracing the Indian Roots of the Roma People

The term "Tsigan" (or "Tsigane") is often used to refer to the Roma people in various Eastern European languages, including Russian. The Tsigan people are the same as the Roma.

The Roma, often referred to as "Gypsies," have a historical connection to India. Linguistic, genetic, and cultural evidence suggests that the Roma people originated from the northern Indian subcontinent, particularly from the regions of Rajasthan, Haryana, and Punjab, around 1,000 years ago. Over centuries, they migrated westward, eventually settling in various parts of Europe and beyond, including Russia. The Roma people have maintained some elements of their Indian heritage in their language, traditions, and customs.

With Gautam Kashyap's kind consent, I am sharing an interesting series of his Facebook posts. Gautam, originally from Patna, studied at BHU and DU, and now lives in Chelyabinsk, Russia, working as a translator according to his Facebook profile.

रूस में वे कौन लोग हैं जो जल को "पानी" कहते हैं? कौन है दुनिया का सबसे प्रताड़ित समुदाय जिसे यूरोप जैसे तथाकथित सभ्य समाज में भी तिरस्कार और अपमान सहना पड़ता है? इस अनाथ भारतवंशी समुदाय को हम क्यों भूल गए हैं?

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Video courtesy Gautam Kashyap's Facebook profile

रूसी त्सीगाने, भाग -1

रूस में वे कौन लोग हैं जो जल को "पानी" कहते हैं? कौन है दुनिया का सबसे प्रताड़ित समुदाय जिसे यूरोप जैसे तथाकथित सभ्य समाज में भी तिरस्कार और अपमान सहना पड़ता है? इस अनाथ भारतवंशी समुदाय को हम क्यों भूल गए हैं?

आज नाई की दुकान पर मेरी मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो पीने के लिए पानी मांग रहा था। आखिर रूस में "पानी" शब्द का इस्तेमाल कोई क्यों करेगा? यह तो शुद्ध भारतीय शब्द है। मुझे जिज्ञासा हुई तो मैंने उनसे बात करना शुरू किया और पाया कि उनकी हर बात में भारतीय भाषाओं और बोलियों के शब्द थे। उन्होंने झुक कर मेरा अभिवादन किया, जैसे हम भारतीय करते हैं। उन्होंने बताया कि वे "त्सीगान्ये" जनजाति समूह से हैं। मैंने कहा कि मैंने "त्सीगान्ये" समुदाय के बारे में काफी कुछ पढ़ा है और आप लोगों से मिलने की मेरी बहुत पुरानी इच्छा थी जो आज पूरी हो गई। अगर आपके पास समय हो तो क्या आप मुझसे थोड़ी देर बातें करेंगे? उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप भारत से हैं?

- जी, मैं भारत से हूँ।

- मेरी वर्षों से इच्छा थी कि जीवन में किसी भारतीय से मिलूँ।

- क्या आप जानते हैं कि आपके पूर्वज भारत से हैं? - मैंने पूछा।

- मुझे तो नहीं पता, लेकिन यहाँ कई लोग ऐसा ही कहते हैं।

मैंने कहा कि देखिए, अभी डीएनए जाँच तो संभव नहीं है लेकिन हम भाषाओं की मदद से कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

बगल की दुकान में मांस बिक रहा था। मैंने पूछा कि आप अपनी भाषा में इसे क्या कहते हैं? उन्होंने कहा - "मास"।

और यह जो लाल रंग जमीन पर बिखरा हुआ है, यह क्या है? उनका जवाब था "रत्त"। मैंने कहा कि संस्कृत में इसे "रक्त" कहते हैं।

इस तरह हम लोगों की बातें होने लगीं। वहाँ और भी लोग इकट्ठे हो गए और हमारी बातों को ध्यानपूर्वक सुनने लगे। मैंने उनसे कहा कि आप अपनी भाषा में कुछ बोलिए और मैं समझने की कोशिश करूंगा। देखा जाए तो अब वे व्याकरण का इस्तेमाल मध्य एशियाई देशों की भाषाओं और फारसी की तरह कर रहे थे। फारसी, उज़्बेक और कज़ाख भाषाओं की मेरी बुनियादी समझ थी तो मेरे लिए अनुमान के आधार पर इस भाषा को समझना मुश्किल नहीं था। व्याकरण कुछ भी हो लेकिन शब्द बड़ी संख्या में संस्कृत और देशज के थे, जिन्हें कोई भी आम उत्तर भारतीय आसानी से समझ सकता है।

मैंने उनसे कहा कि अगर आप समय और अनुमति दें तो मैं दो मिनट की एक वीडियो बनाना चाहूँगा। इस वीडियो में आप देख सकते हैं कि शरीर के अंगों के नाम, जैसे: नाक (नाक), दंदा (दांत), वस्त (हाथ, शायद हस्त से बना हो), काना (कान), प्येर (पेट), मुई (मुँह), सिरो (सिर), बाल (बाल), या फिर एक से दस तक गिनती और कुछ अन्य शब्द, जैसे पानी (जल), थूद (दूध), चोंद (चाँद) हमारी भाषाओं से कितने मिलते-जुलते हैं।

इसके अलावा भी कुछ शब्द, जैसे: बुत (बहुत), कोन? (कौन?), बरो (बड़ा), बरो वालो (बड़े लोग), मानुष (मनुष्य), नेओ (नया), चीरेक्ली (चिड़ियाँ), घोड़ा (ग्राई), याग (आग), चूरी (छुरी), काष्ट (लकड़ी), व्याव (विवाह), बरिशइंद्र (बारिश) और समय से जुड़े शब्द: दिवेस (दिन), राते (रात), बेर्श (वर्ष), रिश्तों के नाम: दादो (पिता), मामा (दादी - बिहार में भी मामा कहते हैं), पापो (दादा/बाबा), काका (चाचा/काका), चाओरो-चाउरी (लड़का - लड़की के लिए बिहार में छौंड़ा-छौंड़ी) से आपको इस भाषा की आत्मा जरूर समझ में आ जाएगी।

चूंकि आजकल मेरा अध्ययन क्षेत्र मेटाफोर है, तो मैंने उनकी बेटी से पूछा कि 'तुम्हारी आँखें चिड़ियों जैसी हैं' को अपनी भाषा में कैसे कहोगी। उसका जवाब था “तेरो याख्या सिर चिरगिन्या।” सिर की व्युत्पत्ति संभवतः सितारा से हुई हो।

ऐसे और भी कई शब्द पकड़ में आए, जैसे "सुने से?" (सुन रहे हो?), "ऊ गया" (वह चला गया)। कई क्रियाओं का संयोजन ये रूसी की तरह करते हैं, जैसे Мы идем को बोलते हैं “आमि ग़योम” (क्रिया: गया से ग़योम) (हम जा रहे हैं) (आमि - हम के लिए बंगाली शब्द) जिसे आसानी से समझा जा सकता है। डोरबे नोई (डरो मत)।

इस भाषा पर आगे भी चर्चा करेंगे। लेकिन एक महत्वपूर्ण चीज़ जो मेरे ध्यान में आई, वह था 'ईश्वर' के लिए शब्द। त्सीगान्ये समुदाय अपने ईश्वर को "डेविल" (devil) कहते हैं। हमारी दुनिया/ईसाई दुनिया में इस शब्द का अर्थ "शैतान" होता है। दरअसल, जब कोई समुदाय किसी अन्य समुदाय को दबाता है, उनकी संस्कृति को तहस-नहस करता है, तो उनके ईश्वर को शैतान मान लेता है। यह चीज़ भारत में भी दिखती है। वैदिक काल में "असुर" शब्द का अर्थ देवताओं के लिए हुआ करता था, लेकिन ब्राह्मण धर्म के प्रसार के बाद अब असुर का अर्थ राक्षस के लिए होता है। संभवतः "राक्षस" का अर्थ भी मूल निवासियों के ईश्वर (रक्षक) का विनष्ट रूप है, जिसका अर्थ एक समुदाय के सांस्कृतिक वर्चस्व के प्रभाव में बदला गया हो। जब इस्लामी वर्चस्व बढ़ा, तो "हिंदू" का अर्थ भी बदल गया। कई अरबी/उर्दू शब्दकोश में "हिंदू" का अर्थ शैतान या चोर मिलता है।

त्सीगान्ये समुदाय दुनिया का सबसे पीड़ित समुदाय है। करीब दो हजार साल से यह समुदाय स्थान बदल-बदल कर रहता आया है। इस वजह से यह दुनिया भर में फैल गया। पूरे भारत, मध्य एशिया और रूस से यूरोप तक इनकी संख्या करोड़ों में है। इसे भारत में बंजारा और गुलगुलिया भी कहते हैं। इन समुदायों के बारे में भारत में अच्छी धारणा नहीं है। लोग इनका अपमान करते हैं। रूस में भी मैंने ऐसा ही अनुभव किया है। आम लोग कहते हैं कि ये अपराधी होते हैं, चोरी करते हैं, लेकिन समाज इनकी संस्कृति और मजबूरियों को नहीं समझता। ये आज भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं से कोसों दूर हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में पूरे यूरोप में नाज़ियों ने बेरहमी से 2 लाख से ज़्यादा रोमाओं का क़त्ल कर दिया। यूरोप, जो स्वयं को लोकतंत्र और मानवाधिकार का मसीहा मानता है, वहाँ आज भी इन घुमंतू जातियों को बुनियादी अधिकार प्राप्त नहीं है। इनके ईश्वर को उस समाज द्वारा "शैतान" बना दिया गया। यूरोप की ज्यादातर सरकारें उन्हें अपने देश के नागरीक के रूप में स्वीकार नहीं करती। ज्यादातर रोमा समुदाय के लोगों के पास न जन्म प्रमाण पत्र होता है न मतदाता पहचान पत्र। रोजगार के अभाव में रोमा लोग इधर-उधर घूमने को मजबूर हैं। ये जहां भी जाते हैं इन्हें दुत्कार ही मिलती है। खौफ के मारे ये लोग अपनी पहचान जाहिर करने से कतराते हैं।

रोमानिया में 2013-2014 के दौरान एक दक्षिणपंथी संगठन ने इस जिप्सी (रोमा) समुदाय के औरतों का बंध्याकरण करने का फरमान जारी किया था। बुल्गारिया की राजधानी सोफिया में 2013 में रोमा समुदाय के लोगों के खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था। 2012 में चेक रिपब्लिक में प्रदर्शन के दौरान भीड़ नारे लगा रही थी “गैस द जिप्सीस” यानी रोमा जिप्सियों को नाजी कालीन गैस चैंबरों में डालकर मार दिया जाए।

2007-2012 के दौरान फ़्रांस में निकोलस सरकोज़ी की सरकार ने अपनी विफलता को छुपाने के लिए इस जिप्सी समुदाय को फ़्रांस से खदेड़ दिया था। इस पर आलोचनाओं के जवाब में उन्होंने कहा कि ये अपराधी और आतंकी हैं, तथा इन्हें खदेड़ना सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक है और इस बारे में फ्रांस को किसी की नसीहत की जरूरत नहीं है। अगर किसी एक व्यक्ति ने अपराध किया तो उसे सजा दी जा सकती है लेकिन उसके पूरे समाज को सजा देना कहाँ तक जायज़ है? लेकिन तथाकथित यूरोपीय सभ्य समाज इस घुमंतू समुदाय को समय-समय पर प्रताड़ित करता रहता है और इनके टेंट और घरों को तोड़ना और उनके स्थान से खदेड़ना आम बात है। फ़्रांस, जर्मनी, पोलैंड, बुल्गारिया, हंगरी, रोमानिया, ब्रिटेन आदि देशों ने बिना किसी सबूत के हद से ज़्यादा इस निर्दोष और निर्धन लोगों के समूह को दंडित किया, जिनका आज भी अपना कहीं कोई ठौर-ठिकाना नहीं है।

इंदिरा गांधी के शब्दों में, “रोमा लोगों का इतिहास विपत्ति और वेदना का इतिहास है, लेकिन नियति के थपेड़ों पर मानवीय उत्साह की जीत का भी इतिहास है।”

स्थान, समय और विपरीत परिस्थितों के चलते इस समुदाय की भाषाओं के व्याकरण काफ़ी बदल गए हैं, लेकिन अपने मूल शब्दों को ये आज भी बचाए हुए हैं। इनकी भाषाओं में संस्कृत, राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, बिहारी और बंगाली भाषाओं और बोलियों के ढेर सारे शब्दों की भरमार है।

सन 2003 में पद्मश्री से सम्मानित डा. श्याम सिंह शशि ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर रोमा समुदाय के लोगों को भुखमरी से बचाने की अपील की थी। उन्होंने अपने पत्र में कहा था कि प्रवासी दिवस पर रोमा समुदाय को भी याद किया जाना चाहिए क्योंकि रोमा भारतीय मूल के ही लोग हैं। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने 2001 में रोमा समुदाय पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन किया था, जिसमें एक दर्जन देशों से 33 रोमा प्रतिनिधि सम्मेलन में शामिल हुए थे। तब इस समुदाय को सांस्कृतिक आदान-प्रदान और अन्य प्रकार की सहायता का वचन भी दिया गया था। इसमें रोमा जाति के लोगों को भारतीय नागरिकता देने की मांग भी उठी थी। हम उम्मीद करते हैं कि यूरोप में इनपर जुल्म की स्थिति में मीडिया इसे चर्चा का विषय बनाएगी, और भारत सरकार इनके हक़ अधिकार और न्याय के लिए अपना समर्थन देगी।

कुछ ही दिनों में मैं रुस में इस समुदाय के कुछ गाँवों की यात्रा करूँगा तो आगे इसपर और भी चर्चा होगी। तब तक के लिए हमारे साथ जुड़े रहें।

रूसी त्सीगाने, भाग - 2

जब मैंने त्सीगाने या रूसी जिप्सी के गाँवों में जाने का मन बनाया तो मेरे लगभग सभी रूसी मित्रों ने मुझे वहाँ जाने से मना किया। रूसी लोग पढ़े-लिखे और खुले विचारों के होते हैं, लेकिन मुझे तब अजीब सा लगा, जब सभी ने एक स्वर में कहा कि त्सीगाने के गाँव जाना खतरनाक है। उन्होंने कहा कि वे लोग बेकार, गंदे, चोर, नशेबाज़ और आदतन अपराधी होते हैं।

रूसी दार्शनिक और कलाकार निकलाई रेरिख ने अपने एक आलेख “रूस - भारत” में जिप्सियों के भारत से आने की बात कही थी और रूसी वैज्ञानिकों से इस पर अध्ययन करने और इससे जुड़े प्रश्नों को सुलझाने का आग्रह किया था। आलेख पढ़ने के बाद मेरी त्सीगाने समाज में दिलचस्पी बढ़ गई। मैं सोच लिया था कि जब मैं रूस जाऊँगा तो त्सीगाने समाज से मिलूँगा और उनके जीवन, भाषा और संस्कृति को नज़दीक से देखूँगा और अध्ययन करूँगा।

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कई वर्षों तक रूस में रहने के बाद भी मुझे त्सीगाने समाज का पता नहीं चल पाया। मेरे रूसी दोस्तों ने भी मदद नहीं की और इसके विपरीत मुझे उनके बारे में कुछ भी कहने से मना करते रहे। २३ जून, २०२४ को सुबह ०९ बजे मैंने एक जिप्सी मित्र के अनुरोध पर उसके गाँव जाने का फैसला कर लिया। जिप्सी युवक से मेरी दोस्ती की कहानी आप मेरे पिछले पोस्ट में पढ़ सकते हैं। सच कहूँ तो मेरे रूसी दोस्तों ने त्सीगाने का इतना डरावना चेहरा दिखाया था कि मुझे वहाँ जाने से डर लग रहा था। फिर भी मैंने सोचा कि मेरे साथ सबसे बुरा हादसा क्या हो सकता है - वे मेरा सामान, पासपोर्ट और पैसे छीन लेंगे, मुझे किडनैप कर लेंगे या जान से मार देंगे। मैंने खुद को तैयार किया, दुकान जाकर तोहफ़े में देने के लिए कुछ सामान ख़रीदे, चेलियाबिंस्क के मुख्य बस स्टेशन पहुँच कर “इमानज़्हेलिन्का” का टिकट लिया और अपने जिप्सी मित्र मीशा को फोन करके सूचित कर दिया। वह खुश हुआ कि मैं उसके गाँव आ रहा हूँ। मैंने उसे कहा कि मेरे रूसी दोस्तों का कहना है कि तुमलोग मुझे हिप्नोटाइज कर लोगे, जान भी मार सकते हो, सामान भी छीन लोगे, इसलिए मैं आ तो रहा हूँ लेकिन मुझे डर लग रहा है। उसने कहा कि आप हम पर विश्वास करें और बिना सच्चाई जाने किसी की बात पर विश्वास न करें। उसने कहा कि वह बस स्टेशन पर मुझसे मिलेगा। ४५ मिनट की यात्रा के बाद मैं “इमानज़्हेलिन्का - २” बस स्टॉप पर उतर गया लेकिन मुझे वहाँ कोई नहीं दिखा। मैं यांदेक्स मैप की सहायता से दस मिनट पैदल चलकर उसके घर पहुँच गया, क्योंकि उसने मुझे पहले ही अपना पूरा पता दे रखा था। घर के बाहर पहुँच कर मैंने उसे कॉल किया तो पता चला कि वह अभी बस स्टेशन पर है और मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। दरअसल मेरी बस दस मिनट पहले आ गई थी, और किसी को वहाँ न पाकर मैंने खुद ही उसके घर जाने का फैसला कर लिया था। उसे आश्चर्य हुआ कि मैं कैसे उसके घर मोबाइल फोन की सहायता से पहुँच सकता हूँ। उसने कहा कि आप मेरे घर जाओ और आराम करो, मैं जल्द ही पहुँच रहा हूँ।

पूरी दुनिया में स्टीरियोटाइप एक बड़ी समस्या है। रूस में मैं कई अरबी और मध्य एशियाई मुस्लिम छात्रों से मिला जिन्होंने इंटरनेट पर कुछ वीडियो देखकर यह धारणा बना ली थी कि भारत में सभी हिंदू गौमूत्र पीते हैं। हमने भारत में भी देखा है कि किस तरह मीडिया ने समाज में स्टीरियोटाइप फैलाया था कि मुसलमानों की वजह से कोरोना फैल रहा है। और इसका परिणाम यह हुआ कि कई मुहल्लों में निर्दोष मुस्लिम सब्ज़ी विक्रेताओं को बेवजह पीटा गया। मैं अपने समाज में कई ऐसे स्टीरियोटाइप सुनते हुए बड़ा हुआ हूँ, जिनका सत्य से कोई वास्ता नहीं है, जैसे: महिलाओं का दिमाग घुटने में होता है, भूमिहार अपराधी होते हैं, यादव में दिमाग ८० साल बाद आता है, दलित पढ़ने में अच्छे नहीं होते और सिर्फ आरक्षण के बल पर नौकरी पाते हैं, वग़ैरह वग़ैरह। दरअसल स्टीरियोटाइप एक मानसिक बीमारी है, जिससे हम भारतीयों की तरह ही रूसी, अमेरिकी या यूरोपीय समाज भी संक्रमित है। कई बार पढ़े-लिखे लोग भी बिना तर्क किए पूर्वाग्रहों पर विश्वास कर लेते हैं और धर्म एवं जाति के आधार पर पूरे समाज को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। स्टीरियोटाइप की वजह से दुनिया में कई युद्ध और नरसंहार हुए हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजी जर्मनी ने यहूदियों, स्लाव और अन्य समूहों के खिलाफ़ चरम नस्लीय और जातीय स्टीरियोटाइप का प्रचार किया था। इन रूढ़िवादिताओं ने ज़ेनोफोबिया, नस्लवाद और अंततः नरसंहार नीतियों को बढ़ावा दिया, जिसके भयंकर परिणाम आज हमारी पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा हैं। हाल के दशक में हमने देखा है कि कैसे यूक्रेन में नाज़ी गुटों ने अपने रूसी भाषी नागरिकों के विरुद्ध समाज में स्टीरियोटाइप का प्रसार किया, २० हज़ार से ज़्यादा रूसी भाषी नागरिकों की हत्या कर दी गई, जिसकी वजह से रूस को यूक्रेन में अपना विशेष सैन्य अभियान चलाना पड़ा। अतः सरकार, मीडिया, शिक्षकों आदि की यह नैतिक ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वे समाज को स्टीरियोटाइप के ख़तरों से बचाएँ और समाज में तर्क आधारित ज्ञान और सोच को बढ़ावा दें।

मीशा के घर के अंदर जाते ही बायीं तरफ़ बथान था, जहां दो घोड़े, तीन बकरियाँ, बत्तख़ और कबूतरों के रहने की व्यवस्था थी। दायीं तरफ़ रहने के लिए घर था। दोनों के बीच एक आँगन था, और घर के पीछे चारदीवारी के अंदर एक बड़ा मैदान था, जहां वे सब्ज़ी, घास आदि की खेती करते हैं। घर के अंदर पहुँचते ही मैंने देखा कि कई व्यंजनों से बैठक कक्ष की मेज़ सजी हुई है। मीशा के माता-पिता मेरे साथ बैठ गए और हमलोग बातें करने लगे। मैंने कहा कि रूसी समाज में आप लोगों की इतनी नकारात्मक छवि क्यों है? उन्होंने बताया कि उनके समाज के कुछ लोग चोरी, नशे और बदमाशी आदि में शामिल रहे हैं, लेकिन हर समाज में अच्छे और बुरे लोग होते हैं, और इसके लिए पूरे समाज को निशाना नहीं बनाना चाहिए।

मैंने उनसे पूछा कि आप लोग यहाँ कैसे आए, क्या आपको मालूम है कि आप भारत से यहाँ आए हैं? उन्होंने बताया कि उन्हें यह नहीं मालूम लेकिन चालीस साल पहले वे अपने समूह के साथ हंगरी से रूस आए थे, तब उनके समूह पर वहाँ अत्याचार हुए थे और इस वजह से उन्हें वहाँ से भागना पड़ा था। वे बताते हैं कि उनके पूर्वज इजिप्ट से यूरोप आए और एक मान्यता है कि वे भारत से ईरान होते हुए इजिप्ट पहुँचे थे। उन्होंने बताया कि इन चालीस वर्षों में उन्होंने पूरे बेलारूस, यूक्रेन, रूस और कज़ाखस्तान का सफर पैदल या घोड़ों के साथ किया। सबसे बड़ी बात कि उनकी भाषाओं में संस्कृत, भारतीय देशज शब्दों के साथ-साथ हंगरी भाषा के शब्द भी शामिल थे। चूँकि मैंने दिल्ली में दो साल प्रोफ़ेसर मार्गिट कोवास से हंगरी भाषा सीखी है तो इस जिप्सी परिवार की भाषा को समझना मेरे लिए आसान हो गया। मैंने उनसे पूछा कि क्या पूरे रूस में सभी जिप्सी समुदाय एक जैसी भाषा बोलते हैं? उन्होंने बताया कि यहाँ कई जिप्सी समुदाय हैं, जिनकी भाषाएँ काफ़ी अलग हैं और वे एक-दूसरे को ठीक से नहीं समझ पाते।

इस बीच मुझे किसी जानवर के मिमियाने की आवाज़ सुनाई दी। मैंने पूछा कि यह कौन सा जानवर है, तो उन्होंने कहा कि “बकरी” की आवाज़ है। उनकी भाषा में “बकरी” को “बकरी” ही बोलते हैं। त्सीगाने समाज बकरी को समझदार और ताकतवर पशु मानता है, वहीं भारत में कमजोर दिल वालों के लिए बुज़दिल (बकरी जैसे दिल वाला) शब्द का इस्तेमाल होता है।हालाँकि यह कॉन्सेप्ट भी भारतीय नहीं है, बल्कि ईरानी आक्रांताओं के साथ भारत आया है। बुज (बकरी), दिल (हृदय) फ़ारसी के शब्द हैं।

हम फिर मीशा के साथ उनके बथान की तरफ़ गए, जहाँ घोड़े को खिलाने के लिए घास का गट्ठर रखा हुआ था। मैंने पूछा कि अपनी भाषा में आप इसे क्या कहते हैं, तो उन्होंने बताया “चर”। बिहार में कई जगह किसान इसे “चरी” कहते हैं। पशुओं के खाने को चारा कहा जाता है। मुझे एक बिल्ली दिखी तो मैंने पूछा कि त्सीगान भाषा में इसे क्या कहते हैं? तो उनका जबाव था : माचका। कहीं मीत्सा भी कहते हैं। इससे मिलता जुलता शब्द संस्कृत में ‘मार्जार’ और मराठी में ‘मांजर’ है।

मैंने पूछा कि "घर" को त्सीगान भाषा में क्या कहते हैं, तो उनका उत्तर था : घर, जो देशज शब्द है। दरवाजा को उदार या द्वार कहते हैं।(क्रमशः)

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यह सीरिज़ काफ़ी लंबी होगी, जिसमें रूसी जिप्सी/त्सीगाने समुदाय से जुड़े ऐतिहासिक, भाषायी, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर चर्चा होगी जो कई हिस्सों में आएगी। पढ़ने के लिए हमारे प्रोफाइल से जुड़े रहें। अपने सवाल कमेंट बॉक्स में साझा करें।

रूसी त्सीगाने, भाग - 3

रूसी त्सीगाने मित्र मीशा ने पूछा कि मुझे यहाँ कैसा महसूस हो रहा है। मैंने जवाब दिया कि मानो मैं भारत में अपने गाँव में परिजनों के बीच पहुँच गया हूँ। तभी, मेरी एक दोस्त का व्हाट्सएप मैसेज आया। उसने पूछा कि मैं क्या कर रहा हूँ? मैंने बताया कि मैं रोमा परिवार के साथ हूँ और खाना खा रहा हूँ। उसे आश्चर्य हुआ कि मैं वहाँ कैसे खा सकता हूँ। उसने बताया कि रूस में त्सीगाने के बारे में यह स्टीरियोटाइप है: उनके किसी भी व्यंजन बनाने का पहला चरण होता है - कहीं से एक कड़ाही चुराओ… जंगली चूहे (साही) को उबालो और बन गया खाना। मैंने उसे बताया कि त्सीगाने भी तुम लोगों की तरह ही खाना बनाते और खाते हैं।

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इनके कई समूह आज भी घुमंतू जीवन जी रहे हैं। कुछ निर्जन साइबेरिया की तरफ़ घूम रहे हैं। मीशा के पिता बताते हैं कि वैश्विक बदलाव के कारण हमारे समाज को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे पहले तो रूस और पूरी दुनिया में लोग यह समझने को तैयार नहीं हैं कि घूमते-फिरते भी जीवन जिया जा सकता है। हमने हजारों सालों से ऐसे ही जिया है और हम इससे संतुष्ट हैं। हमारा मानना है कि दुनिया के हर स्थान पर सभी लोगों का अधिकार है। लेकिन आधुनिक समाज में सरकार और लोग हमें अपने नियमों के हिसाब से जीने को मजबूर करना चाहते हैं।

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लोग कहते हैं कि त्सीगाने काम नहीं करते। आखिर लोग काम क्यों करें? क्या आज जो काम कर रहे हैं, वे सभी सुखी और संतुष्ट हैं? हम अपने समूह के साथ जहाँ मन किया उधर विचरण करते हैं, जहाँ जो भी मिला, जैसे: फल, सब्जी, मांस आदि खाते-पीते हैं, कुछ दिन नए स्थान पर रुकते हैं और फिर अगले पड़ाव की ओर बढ़ जाते हैं। इसमें क्या बुराई है? आप लोग यह क्यों नहीं समझना चाहते कि जैसे आप लोगों की जीवनशैली है, वैसे ही हमारी भी एक अलग तरह की जीवनशैली है, जो पूरी ज़िंदगी घूमते रहने की है। पहले हम जहाँ भी जाते, नदियों का पानी पीते, अपने साथ रहने वाले पशुओं का दूध पीते, माँस खाते, गाना गाते और एक नए पड़ाव की ओर बढ़ जाते थे। इससे किसी को नुकसान नहीं था। पेड़-पौधे, जीव-जंतु, नदी-नाले सब सुरक्षित थे। क्या अब कोई नदी का पानी पी सकता है? हर जगह सड़कें बन गई हैं, जंगल काटे जा रहे हैं, इसलिए हमारे लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना मुश्किल हो गया है। सभ्य लोगों ने ज़मीनों पर कब्जा कर लिया है, और अब ऐसा लगता है जैसे हमारा इस धरती पर कुछ भी नहीं है। नये जगह पर जाना और वहाँ अपना टेंट लगाना मुश्किल हो गया है, क्योंकि लोग वहाँ से भगा देते हैं। क्या यह अच्छी बात है? यह कैसी सभ्यता है?

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मीशा की माँ ने कहा कि अगर रोमा लोगों का अपना देश होता, तो वहाँ कभी भी किसी को काम करने की ज़रूरत नहीं होती, कोई किसी का गुलाम या नौकर नहीं होता। मैंने पूछा कि सोवियत संघ में आप लोगों के लिए कैसा माहौल था? तब के दौर में रहना आसान था या अब? उनका कहना था कि उस दौर में सरकार ने हमें नागरिकता दी, जो एक अच्छा कदम था। हमें ज़मीन और घर दिये गये, कई नागरिक अधिकार मिले, हमारे लिए स्कूली शिक्षा की व्यवस्था की गई, लेकिन लोगों को ज़बरदस्ती काम पर भेजा जाने लगा, क्योंकि हमारे काम को कोई काम समझता ही नहीं था। हमारा काम था गीत गाना, वाद्य यंत्र बजाना, करतब दिखाना, जंगल से खाना इकट्ठा करना, घोड़े और बकरियाँ पालना, हमेशा घूमते रहना, लेकिन हमें खेतों और कल-कारखानों में भेज दिया गया, जिसके लिए हम तैयार नहीं थे। हमारे समाज में नौकरी को गुलामी का प्रतीक माना जाता है, और जो लोग नौकरी करते थे, वे स्वयं को बेबस समझते थे। उनका कहना था कि हम दुनिया या सरकार से कुछ नहीं चाहते, हम चाहते हैं बस हमें अपनी परंपराओं के हिसाब से जीने दिया जाये। हमें युद्ध पसंद नहीं था, लेकिन सोवियत संघ के दौर में हमें ज़बरदस्ती सेना में शामिल किया गया, हमारे लोग युद्ध में शामिल हुए और मौत को गले लगाया। जबकि रोमाओं का इतिहास है कि हमने ज़मीन, घर और देश के लिए कभी भी युद्ध नहीं किया है, क्योंकि ऐसा करना हमारी सामाजिक मान्यता का हिस्सा नहीं रहा। पाँच दशक पहले तक हम लोग मध्य एशिया और यूरोप में आना-जाना करते थे, लेकिन अब वीज़ा और पासपोर्ट की ज़रूरत होती है, जिसे बनवाना हमारे लिए नामुमकिन है। अब हमें एक सीमा में बांध दिया गया है। हमारे कई रिश्तेदार दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फँसे हुए हैं जिनसे हम शायद दुबारा कभी नहीं मिल सकेंगे।

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उन्होंने आगे बताया कि हमारे बारे में समाज में आम धारणा बन गई है कि हम चोरी करते हैं, ठगी करते हैं, अपराधी हैं, नशेबाज़ हैं। इस वजह से लोग हमसे दूर रहते हैं। लेकिन किस समाज के लोग ऐसा नहीं करते? हर समाज में अपराधी होते हैं, लेकिन पूरी दुनिया ने हमारे पूरे समाज को अपराधी मान लिया और इसे प्रचारित किया। हमारे लोग मजबूरन चोरी करते हैं, क्योंकि हमारी पारंपरिक जीवन शैली को ख़त्म कर दिया गया। अब हमारे घोड़ों की ज़रूरत ना आम लोग को है, ना ही सेना को, तो हमारी आर्थिक स्थिति तो कमजोर ही होगी ना? गीत-संगीत, नृत्य और मनोरंजन का हमारा पारंपरिक पेशा पूँजीपतियों ने हमसे छीन लिया। एक समय इन कार्यों को करने वालों को सभ्य समाज बुरी नज़र से देखा करता था, हमारी लड़कियों का शोषण होता था, लेकिन अब वे लोग हमारा काम गर्व से अपना रहे हैं, फ़िल्म स्टार, संगीतज्ञ और कलाकार कहे जाते हैं, टीवी और मोबाइल के माध्यम से वे पूरी दुनिया का मनोरंजन कर रहे हैं, खूब पैसे कमा रहे हैं, लेकिन हमारे पास क्या बचा? सिर्फ नौकरी करना और गुलामी की ज़िंदगी जीना? इस माहौल में भूखे लोग तो चोर ही बनेंगे ना? एक समय था जब लोग हमारे संगीत और कलाओं को सुनने और देखने आते थे, हमें खूब पैसे और पुरस्कार मिलते थे, लेकिन नई दुनिया में हमारे पारंपरिक कार्य को दूसरे लोगों ने छीन लिया, और हमें ग़ुलामों वाले कार्य सौंप दिये गये। अब अशिक्षा, भूख और गरीबी की वजह से कोई गलत कदम उठता है तो झुंड बनाकर लोग हमें अपराधी साबित कर देते हैं, और भगा देते हैं, हमारे ख़िलाफ़ दुनिया भर के देशों में आंदोलन होते हैं …. (क्रमशः)

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यह सीरिज़ काफ़ी लंबी होगी, जिसमें रूसी जिप्सी/त्सीगाने समुदाय से जुड़े ऐतिहासिक, भाषायी, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर चर्चा होगी जो कई हिस्सों में आएगी। पढ़ने के लिए हमारे प्रोफाइल से जुड़े रहें। अपने सवाल कमेंट बॉक्स में साझा करें।

रूसी त्सीगाने, भाग - 4

…. हमारे खिलाफ दुनिया भर में आंदोलन होते हैं।


सवाल उठता है कि जो अनपढ़ हैं, उनके प्रति तिरस्कार के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन जो युवा पढ़े-लिखे हैं, उनके साथ भी यह दुनिया अच्छा सुलूक नहीं करती है। हमारे पढ़े-लिखे युवा अपनी पहचान छिपाकर काम करते हैं। रूस में अगर कोई कह दे कि मैं त्सीगान समाज से हूँ, तो शायद उसे अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी, या उसे दूर भगा दिया जाएगा। यह सत्य भी है। पूरे यूरोप में लोग तभी तक आधुनिक, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष हैं जब तक वहाँ रोमा व्यक्ति नहीं हैं। रोमा के आते ही सभी की सोच चार-पाँच सौ साल पीछे चली जाती है।

Image courtesy Gautam Kashyap's Facebook profile

हमारे बारे में कहा जाता है कि हम बच्चे चुराते हैं, लोगों को हिप्नोटाइज़ कर देते हैं (यह बात मेरे सभी रूसी दोस्तों ने व्हाट्सएप चैट में लिखित में कही है। मैं एक स्नैप कमेंट बॉक्स में जोड़ रहा हूँ, ताकि किसी को यह ना लगे कि मैं कहानियाँ बना रहा हूँ, बल्कि सच्चाई बता रहा हूँ)। इसके पीछे की वजह दूसरी है। सबसे बड़ी वजह है कि त्सीगाने समाज बड़े परिवार को महत्व देता है। ऐसी स्थिति में हम अनाथ बच्चों को भी आसानी से अपना लेते हैं। हम यह नहीं देखते हैं कि उनका धर्म/जाति/रंग/नस्ल क्या है। जबकि आम लोग सोचते हैं कि हमारे समूह में रूसी या अन्य नस्ल के बच्चे कैसे आ गए? हमने कई बच्चों को अनाथालय से गोद लिया है। दूसरी बात यह है कि कई रूसी लड़कियों ने हमारे पुरुषों से विवाह किया और हमारे समाज में आ गईं, और उनके बच्चे रूसी जैसे दिखते हैं। लोगों को दिखता है कि हमने रूसियों के बच्चे चुरा लिए और उनसे जबरन काम करवा रहे हैं। जबकि सच यह है कि हमारे बच्चे पारंपरिक रूप से कार्यों में हमारी सहायता करते हैं।

कई बार ऐसा हुआ है कि रूसी पुरुष और स्त्रियाँ हमारे लड़के-लड़कियों के प्यार में पड़ गए और हमारी संस्कृति को अपना लिया। वे हमारे समुदाय की सुंदर नृत्यांगनाओं, गायक-गायिकाओं, संगीतज्ञों या कलाकारों से प्रभावित हुए और उनसे शादी करके हमारे समाज में शामिल हो गए। कई बार धनी परिवारों के रूसी लड़के-लड़कियाँ भी अपनी आधुनिक जिंदगी या घर-परिवार की समस्याओं से ऊबकर सामान्य जिंदगी जीने या शांति की तलाश में हमारे परिवार से जुड़ जाते हैं, हमारे लोगों से शादी करके हमारी तरह ही रहने लगते हैं। हम उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें हमारा जीवन, पशुपालन, गीत-संगीत, संस्कृति, परंपराएँ और घुमंतू जीवन आकर्षित करता है, वे ज्यादा स्वतंत्र महसूस करते हैं। वैसे कुछ लोग हमारी आर्थिक सहायता भी कर देते हैं। और आधुनिक समाज को लगता है कि हमने उनके बेटे-बेटियों को ठगकर, हिप्नोटाइज़ करके अपना गुलाम बना लिया। इसी बीच एक ने बताया कि उनके परिवार की एक लड़की की शादी भारतीय से हुई है। उन्होंने बताया कि कुछ भारतीय हमारे शहरों में भारतीय सामानों का बाज़ार लगाते थे, वहीं एक लड़के को हमारे परिवार की लड़की पसंद आ गई और उन लोगों ने शादी कर ली। पूर्व में रूसी राज परिवार और जमींदार वर्ग के लड़के-लड़कियों ने भी हमारे समाज में विवाह किया या हमारी बेटियों के साथ शादी की और उन्हें अपने समाज में सम्मानजनक स्थान दिया। (इस विषय पर एक अलग पोस्ट लिखूँगा)

गाँव में मेरे आने की खबर मिलते ही कई लोग मुझसे मिलने आए। सभी लोगों का बर्ताव मेरे साथ बहुत ही अच्छा था। मैं बिल्कुल डरते-डरते यहाँ आया था, लेकिन लोगों के व्यवहार ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उन्होंने बताया कि उनके कई लोग शहरों में रहते हैं, अच्छे पैसे कमाते हैं और आधुनिक जीवन जीते हैं। उन्होंने कहा कि अगली बार मुझे उनके यहाँ भी ले चलेंगे।

बातों-बातों में मैंने पूछा कि आपके नाम क्या हैं? आश्चर्य हुआ कि सभी के नाम रूसी थे। मैंने कहा कि फिर त्सीगाने और रूसियों में क्या अंतर रह गया, आपके असली नाम क्या हैं? उन्होंने कहा कि हम जिस जमीन पर जाते हैं, वहाँ की परंपराओं को स्वीकार कर लेते हैं। मैंने कहा कि फिर भी कुछ नाम बताइए और मुझे सुझाव दीजिए कि अगर मैं भी त्सीगाने परिवार का होता तो मेरा नाम क्या हो सकता था? उन्होंने कहा - गोपाल। मैंने कहा कि आज से मेरा त्सीगानी नाम हुआ - गोपाल, और यह एक भारतीय नाम है। मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ, वहाँ के नाम अपना लेता हूँ। मैं उज़्बेकिस्तान गया था तो कुछ स्कूली बच्चों ने मेरा एक नया नाम “अब्दुल क़ादिर” रख दिया था, फिर सभी मुझे उसी नाम से बुलाने लगे। रूसी मित्र/शिक्षक मुझसे सिर्गेय नाम से बुलाते हैं। त्सीगानी लोग उसके बाद मुझे गोपाल नाम से बुलाने लगे। मुझे बचपन से ही लगता था, आखिर नाम में क्या रखा है? गुलाब को कोई भी नाम दो, उसकी खुशबू तो वही रहेगी। मुझे लगता है कि किसी समाज में घुलने-मिलने के लिए जरूरी है कि उस समाज के नाम को अपना लिया जाए, जैसा कि रूस में रहते हुए त्सीगाने समुदाय करते हैं। इस तरह आप वहाँ विदेशी नहीं लगेंगे। शायद इसीलिए जब विदेशी लोग इस्कॉन से जुड़ते हैं तो सबसे पहले उनके नाम बदल दिए जाते हैं। इस्कॉन से जुड़े मेरे कई रूसी दोस्तों के नाम हैं: हरिदास, अनुराधा, आदि गोपीनाथ, सुंदर माधव। उसी तरह जो लोग ईसाई, हिंदू या इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं तो उन्हें उस धर्म का प्रचलित नाम भी दिया जाता है।

इस बीच मीशा की माँ मेरे लिए आलू और मुर्गे से बना खाना ले आई जो काफी स्वादिष्ट था। मैंने उनसे पूछा कि प्लेट को आप अपनी भाषा में क्या कहते हैं, तो उन्होंने कहा - थारो। भारत में हम लोग थाली, या बिहार में थारी, थरिया आदि बोलते हैं। इसी बीच वहाँ कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। मैंने पूछा कि ये लड़का क्या बोल रहा है, तो मीशा ने मुझे रूसी में बताया कि वह कह रहा है कि उसके चाचा चेलियाबिंस्क चले गए हैं। मैंने कहा कि अपनी भाषा में बोलो, तो उसने कहा: “मुर्रो काक गयो चेलियाबिंस्क।” मुर्रो (मेरा/मेरे/मेरो) काक (काका/चाचा) गयो (गए), इनमें कौन सा शब्द भारतीय और देशज नहीं लगता है। पूरे यूरोप और रूस में एक ही भारतीय मूल की भाषा बोली जाती है और वह है जिप्सियों की भाषा…. (क्रमशः)�

यह सीरिज़ काफ़ी लंबी चलेगी, जिसमें रूसी जिप्सी/त्सीगाने समुदाय से जुड़े ऐतिहासिक, भाषायी, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर चर्चा होगी। पढ़ने के लिए हमारी प्रोफाइल से जुड़े रहें। अपने सवाल कमेंट बॉक्स में साझा करें।

रूसी त्सीगाने, भाग - 5

भाग -4 के बाद मैं थोड़ा विषय से भटक रहा हूँ, हालाँकि यह भी अंततः त्सीगाने समाज से ही जुड़ा विषय है। मेरे पिछले पोस्ट पर यूक्रेन की हमारी बहुत पुरानी मित्र यूलिया का कमेंट आया, “У нас цыгане в основном продают наркотики.. поэтому такое отношение к ним” (अनुवाद: हमारे यहाँ रोमा लोग ​​मुख्य रूप से ड्रग्स बेचते हैं... इसलिए हम उनके साथ ऐसा व्यवहार (दुर्व्यवहार) करते हैं।) यह एक विचित्र स्टीरियोटाइप है।

पुरानी मित्र यूलिया का कमेंट image courtesy Gautam Kashyap's FB post

पूरे यूरोप में शराब और सिगरेट चप्पे-चप्पे पर बिकते हैं। “The Global Burden of Disease (GBD)” के नवीनतम अध्ययन के मुताबिक़ पूरे यूरोपीय देशों में शराब की वजह से होने वाली मौतों की उच्चतम दर में रूस, यूक्रेन और बेलारूस जैसे देश शिखर पर हैं। धूम्रपान से मरने वालों की संख्या भी बेलारूस, यूक्रेन और रूस में सबसे ज़्यादा है। उसके बावजूद इस समाज में इन कंपनियों, कंपनियों के मालिकों या उनसे टैक्स वसूलने वाले शासक वर्ग के प्रति कोई पूर्वाग्रह या विरोध की भावना नहीं है। जबकि पूरी त्सीगाने जाति से सिर्फ़ इसलिए नफ़रत किया जा सकता है, क्योंकि इस समाज के कुछ लोग ड्रग्स बेचते हैं। फिर सवाल यह भी है कि ड्रग्स कौन ख़रीदते हैं? अगर बेचने वाले बुरे हैं, तो ख़रीदने वालों, उसका इस्तेमाल करने वालों का समाज ख़ुद को कैसे अच्छा कह सकता है? ये तो ऐसा ही सवाल है कि वेश्या बुरी है या उसके ग्राहक? और अंत में बुराई का सारा आरोप वेश्या पर मढ़ दिया जाता है।

कल ही मुझे एक और पोस्ट दिखी (स्नैप संलग्न), जिसे फ़ेसबुक पर हमारे एक यूक्रेनी मित्र आनातोली आमेलचेन्का ने साझा किया था। “Цыганский спортсмен Иван Данча принес сборной России золотую медаль. Где он ее взял - никто не знает” (अनुवाद: त्सीगान एथलीट इवान दान्चा ने रूसी टीम के लिए स्वर्ण पदक लाया। लेकिन कोई यह नहीं जानता कि उसने पदक कहाँ से लाया।) इसका अंदरूनी अर्थ यह है कि समाज में सर्वमान्य है कि त्सीगाने लोग चोर होते हैं और इस खिलाड़ी ने स्वर्ण मेडल अपनी प्रतिभा के बल पर नहीं, बल्कि कहीं से चोरी करके लाया है।

रूस और पूरे यूरोप में एक प्रचलित चुटकुला है “त्सीगाने की रेसिपी पुस्तकों में हर व्यंजन के बनाने के विधि का पहला स्टेप होता है “कहीं से कड़ाही चुराओ, और…..” (Вчера купил книгу "Цыганские блюда" начало рецепта украдите кастрюлю।)

ऐसे और भी चुटकुले हैं “Надоело, что цыгане постоянно взламывают твой дом? Не нужно выбрасывать свои деньги на ветер, покупая дорогостоящую сигнализацию и камеры видеонаблюдения. Просто напиши на входной двери большими буквами: Бюро по трудоустройству.” (क्या आप अपने घर में घुसने वाले रोमाओं से परेशान हैं? महंगे अलार्म और सीसीटीवी कैमरों पर अपना पैसा बर्बाद न करें। बस अपने घर के दरवाजे पर बड़े अक्षरों में लिख दें: ऐम्प्लोयमेंट एजेंसी)

मतलब यह है कि ये रोमा लोग कोई काम करते नहीं, तो “ऐम्प्लोयमेंट एजेंसी” का बोर्ड देखते ही दूर रहेंगे।

Медведь, живший в цыганском таборе, не впадал в зимнюю спячку, чтобы у него ничего не украли. (अनुवाद: रोमाओं के शिविर के पास रहने वाले भालू सर्दियों में शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) में नहीं जाते, ताकि उनका कुछ भी चोरी न हो जाए।)

При выходе из супермаркета подходит ко мне цыганка и просит дать ей денег, чтобы накормить детей.

— Нет у меня денег — отвечаю.

Посмотрела она на меня с жалостью и говорит:

— Работать надо! РА-БО-ТАТЬ!

(अनुवाद: सुपरमार्केट से बाहर निकलते समय, एक त्सीगान महिला मेरे पास आई और मुझसे अपने बच्चों को खिलाने के लिए पैसे माँगने लगी। मैंने कहा - "मेरे पास पैसे नहीं हैं।” उसने मेरी ओर दया से देखा और बोली: - तुम्हें काम करने की जरूरत है! काम पर ध्यान दो! खूब मेहनत करो!)

Работающие родители! Дети, неумеющие просить подаяние! ПОЗОР ЦЫГАНСКОЙ СЕМЬИ!!!

(अनुवाद: कामकाजी माता-पिता! यदि आपके बच्चे चोरी करना नहीं जानते हैं, तो यह त्सीगान परिवार के लिए शर्म की बात है।)

एक युवा सज्जन की साइकिल खो गई। वह बहुत परेशान था कि तभी एक त्सीगान महिला आई और उसके कान में फुसफुसा कर बोली: - यदि तुम मुझे एक मग बियर के लिए पैसे दोगे, तो मैं तुम्हें बता दूँगी कि साइकिल किसने चुरायी। उसने त्सीगान महिला को बियर के लिए पैसे दिए और कहा - प्लीज़, मुझे जल्दी बताओ। त्सीगान महिला सज्जन की ओर झुकी और अर्थपूर्ण ढंग से बोली:- साइकिल चोरों ने चुराये!

एक त्सीगान महिला ने एक लड़के को देखकर कहा - ऐ लड़के, जरा इधर आओ।

- क्या हुआ?

- क्या तुम मुझे सौ रूबल दोगे? दरअसल, मुझे अपने बच्चे की बिस्किट को ढँकना है, ताकि वे गंदे ना हो जायें।

त्सीगान लड़का अपने पिता के पास दौड़ता हुआ पहुँचा और कहने लगा: - “पिताजी, मुझे लगता है कि ड्रग तस्करी का हमारा पारिवारिक व्यवसाय, सबसे पहले तो, कानूनों का उल्लंघन करता है, और, दूसरी बात, यह इतना लाभदायक भी नहीं है!"

तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?!

- मैंने बाज़ार में आलू चिप्स को 1,100 रूबल प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकते देखा है!

त्सीगान के साथ साथ शतरंज खेलना मुश्किल भरा काम है, क्योंकि वे सबसे पहले घोड़े चुराते हैं।

ऐसे ढेरों चुटकुले रुस और यूरोप में इंटरनेट पर और लोक व्यवहार में फैले हुए हैं, जिनके माध्यम से यूरोपीय समाज में त्सीगाने समाज का चरित्र चित्रण किया जाता। किसी समुदाय के बारे में प्रचलित चुटकुले और किस्से समाज में उनकी छवि और व्यापक सामाजिक पहचान पर गहरा प्रभाव डालते हैं। किसी समुदाय से जुड़े चटकुलों के अध्ययन के आधार पर हम बहुत हद तक यह अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी स्थिति समाज में बेहतर है या हाशिये पर। स्टीरियोटाइप फैलाते ये चुटकुले किसी समुदाय से जुड़ी नकारात्मक धारणाओं और पूर्वाग्रहों को बहुत हद तक मजबूत बना देते हैं।

लक्षित समुदाय के सदस्य चुटकुलों और कहानियों के इन नकारात्मक चित्रणों (आलसी, बेईमान, चोर, अपराधी, बच्चा चोर) को आंतरिक रूप से ग्रहण कर लेते हैं, जिससे उनकी मनःस्थिति, आत्म-सम्मान और व्यक्तित्व बुरी तरह से प्रभावित होता है और वे इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान मान कर इसी के साथ जीना स्वीकार कर लेते हैं। ये नकारात्मक मिथक समय के साथ इतने मज़बूत हो जाते हैं कि सदियों तक इस पहचान से उबरना संभव नहीं हो पाता है। शासक वर्ग या समाज के कुलीन वर्गों द्वारा बनाये गये ये चुटकुले लक्षित समुदाय के प्रति उत्पीड़न की भावनाओं को भी भड़का सकते हैं। कई बार भले ही किसी चुटकुले या कहानी के पीछे का इरादा दुर्भावनापूर्ण न हो, फिर भी इसका प्रभाव भविष्य में हानिकारक हो सकता है। अतः सभ्य समाज में स्टीरियोटाइप को प्रोत्साहित करने वाली मनोरंजन सामग्री और चुटकुलों पर प्रतिबंध लगना चाहिए और स्कूल से ही बच्चों को इसके प्रति जागरूक किया जाना चाहिए। भारतीय समाज में भी ये चीजें आम हैं। हमने हाल के वर्षों में भारत में देखा है कि कैसे नेता और मीडिया के गठजोड़ ने समाज में एक वर्ग को निशाने पर लेकर स्टीरियोटाइप का निर्माण किया कि कपड़ों के आधार पर अपराधी का पता चलता है। कपड़ों के आधार पर महिलाओं को चरित्र प्रमाण पत्र देने की हमारी सामाजिक परम्परा भी काफ़ी पुरानी है।

हमारे समीप ही खड़े एक त्सीगाने वृद्ध कहते हैं - “दुनिया के हर समाज के पास गर्व करने लायक़ चीजें हैं। कोई अपने महापुरुषों पर गर्व करता है, कोई अपने धर्म और संस्कृति पर, कोई अपनी भाषा और साहित्य पर, तो कोई अन्य ऐतिहासिक उपलब्धियों पर। लेकिन हम किस पर गर्व करें? हमारे पास क्या है? हमारे पास कुछ भी नहीं है। हमारे ऊपर चोर, अपराधी, नशेबाज़, ठग होने का ठप्पा है, और इसी पहचान के साथ हमें आधुनिक और सभ्य समाज के साथ जीना और चलना सीखना होगा।” मेरे लिये ऐसा सुनना मस्तिष्क को झकझोर देने वाला क्षण था।

कई लेखों में सामने आया है कि भारत से आक्रांता इन घुमंतू जातियों को ग़ुलाम बनाकर ले गये और उनका शोषण किया। शोषण और तिरस्कार का यह सिलसिला कभी रुका नहीं। 16वीं सदी के इंग्लैंड में पुरुष रोमाओं को फाँसी पर लटका दिया जाता था। एलिजाबेथ प्रथम ने फ़रमान जारी किया कि, “जो भी रोमा लोगों से मित्रता रखेगा, संबंध रखेगा, उसे फांसी दे दी जाएगी। 17वीं सदी के स्वीडन में रोमाओं को उनके घुमंतू होने की वजह से फाँसी दे दी जाती थी।18वीं सदी के जर्मनी में रोमा पुरुषों को मार डाला जाता था और महिलाओं और बच्चों को गर्म सलाखों से दागा जाता था। प्रशिया के राजा, फ्रेडरिक विलियम प्रथम ने 1725 में एक फरमान जारी कर आदेश दिया कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी रोमाओं को मौत के घाट उतार दिया जाए। नाज़ी जर्मनी में तो यहूदियों के साथ इन रोमा समुदाय का भी बड़े पैमाने पर नरसंहार हुआ। हाल के पाँच वर्षों की खबरें देखें तो यूक्रेन और यूरोप के अन्य देशों में रोमा लोगों के साथ अतिराष्ट्रवादी समूहों ने बर्बर तरीक़े से जुल्म किए। और पता नहीं कि ये सिलसिला कब थमेगा।

रूस में भले ही रोमा समुदाय को सम्मानजनक स्थान और प्रतिनिधित्व ना मिला हो, लेकिन रूस की तरफ़ आने के बाद कम से कम रोमा लोगों की जान ज़रूर बची। आम रूसी समाज में रोमाओं के बारे में भले ही स्टीरियोटाइप हो, आमलोग उन्हें पसंद ना करते हों, लेकिन यहाँ उनके नरसंहार की खबरें सामने नहीं आईं। रूस में जारशाही के दौर में भी रोमाओं को सजा देनें या प्रताड़ित करने वाले क़ानून कभी नहीं बने। सोवियत संघ में उन्हें नागरिकता दी गई, नागरिक अधिकार दिये गये, जो यूरोप के अन्य देशों में रोमाओं का आज भी नहीं मिले हैं। वर्तमान रूस में रोमा समाज को विशेष अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा दिया गया है और उनकी भाषा और संस्कृति के संरक्षण को क़ानूनी दायरे में लाया गया और इसके लिए प्रयास भी हो रहे हैं।

अगर जारशाही के दौर और सोवियत संघ के शुरुआती दशकों को देखें तो रोमा समाज अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में रूस में बहुत हद तक सुरक्षित था। तब के समाज में उनके प्रति आज की भाँति स्टीरियोटाइप नहीं फैले थे। 18वीं सदी के अंत में रोमा लोगों ने यूरोपीय प्रताड़ना से बचने के लिए रूस की ओर पलायन करना शुरू किया - और मुख्य रूप से मल्दोवा, ऊक्राइना और रूस के दक्षिणी क्षेत्रों में बसने लगे। तब रूस की साम्राज्ञी आन्ना इयोआन्नव्ना (Анна Иоанновна) ने उन्हें नागरिक के रूप में स्वीकार किया और उन पर सेना के रखरखाव के लिए कर लगाये। येकातेरिना (कैथरिन) द्वितीय (Екатерина II) के रूसी साम्राज्य में रोमाओं को किसान वर्ग में शामिल किया गया और उन्हें कुलीन वर्ग को छोड़कर अन्य सामाजिक वर्गों (नगरवासी, व्यापारी) में पंजीकृत होने की अनुमति दी गई। इस तरह देखें तो यूरोप की तुलना में रूसी राजशाही रोमाओं के प्रति बर्बर नहीं थी।

विश्व साहित्य की बात करें तो रोमाओं को सबसे ज़्यादा स्थान रूसी साहित्य ने दिया है और उन्हें कहीं भी अपमानित नहीं किया, एवं, उनकी छवि का नकारात्मक चित्रण नहीं किया गया। काउंट अलेक्सेइ अर्लोफ़ (Алексей Орлов) रोमाओं के संगीत के दीवाने थे। उन्होंने ही रूस में सबसे पहले “रोमा गायक-समूह” का निर्माण किया, जिसके निदेशक हुए इवान सोकोलोव ….. (क्रमशः)

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Syed Mohd Irfan

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Syed Mohd Irfan

Broadcast Journalist | Archivist | Music Buff | Founder Producer and Host of the longest running celebrity Talk Show Guftagoo on TV and Digital #TEDxSpeaker #Podcaster #CreativeWriter