एमएफ़ हुसेन : कुछ यादें | Making Experience of Husain's Life Journey in Sound

विश्वख्यात चित्रकार एमएफ़ हुसेन एक ज़मीनी इंसान थे। इंसानों से मिलने और उनके बारे में राय बनाने का उनका लंबा तजर्बा था। मेरी उनसे हुई लगभग सौ मुलाक़ातों के सौ रंग हैं और हर रंग उनमॆं छिपे बडप्पन की निशानदॆही करता है। मैंने उन्हें कभी उकताते हुए या तैश में आते हुए नहीं देखा। जीवन उनके लिये एक उत्सव था।

Caught on Tape : Making of MF Husain's Journey in Sound | Yusuf Begg in Business Standard, 2003

एम एफ़ हुसेन की आत्मकथा | एक चित्रमय लेखन  

एमएफ़ हुसेन से मेरी पहली मुलाक़ात 23 फ़रवरी 2003 को दिल्ली में हुई। कुछ महीनों पहले उनकी आत्मकथा ‘एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी’ हिन्दी में छपकर आयी थी। कहीं इस किताब के कुछ टुकड़े मैंने पढ़े थे। दिल्ली मे एफ़एम गोल्ड तब नया-नया था और मैं इस पर तस्वीर नाम का प्रोग्राम किया करता था। प्रोग्राम तस्वीर की परिकल्पना के अनुसार हम-सब इसमें हिन्दुस्तान की नामी गिरामी हस्तियों की शोकेसिंग किया करते थे और बीच-बीच में गॊल्डेन एरा के फ़िल्मी गाने बजाया करते थे। मैं तब तक मुंशी नवलकिशोर, आग़ा हश्र कश्मीरी, भिखारी ठाकुर, गुलाब बाई, पंडिता रमाबाई और सालिम अली जैसे उन लोगों को प्रोग्राम में शामिल कर चुका था, जो बीती सदी के बहुत अनॊखे लोग थे।

Front cover of MF Husain's autobiography MF Husain Ki Kahani Apni Zubani

हुसेन साहब अपनी शॊहरत के उरूज पर थे और शायद मैं यॆ सॊचकर उनपर देर से प्रॊग्राम करता कि उन्हें कौन नहीं जानता। लॆकिन आत्मकथा कॆ कुछ हिस्सॊं को पढ़कर मैंने पाया कि हुसेन साहब में छिपे लॆखक को मैं पहली बार दॆख पाया हूं। एक करिश्माई चित्रकार, एक अद्भुत लेखक भी है, ये मैं सुनने वालों को बताने के लिये मौक़ा तलाशने लगा।

Glipmses from the Audio Book campaign

अगले ही प्रॊग्राम में हुसेन साहब पर तस्वीर प्रॊग्राम के बीच मैंने “नालेवाला मकान” (पॄष्ठ 59) से ये लाइनें पढीं

छावनी इंदौर में नालेवाला मकान, जहां मक़बूल ने कई ख़ास तरीक़ों, सोच और काम की बुनियाद डाली, जो उसकी आगे की ज़िंदगी के बहुत ज़रूरी हिस्सॆ बने। मिसाल के तौर पर यहीं फ़ॊटोग्राफ़ी शुरू की, फ़िल्म का ऎनीमॆशन किया, काग़ज़ के लम्बे रॊल पर एक किसान – एक बैलगाडी के कई ड्राइंग बनाकर, एक गत्तॆ का प्रोजॆक्टर बॉक्स बनाया, उसमें उस ड्रॉइंग के रॊल कॊ घुमाया। बॉक्स के बीच एक रुपये जितना सूराख़ किया। एक आंख सॆ बॉक्स के अंदर दॆखो तो वहां किसान और बैलगाडी को हरकत करता दॆखो। हाथ से बनी फ़िल्मस्ट्रिप बिल्कुल उसी ‘पीप शॊ’ की तरह जिसमें ‘दिल्ली का दरबार दॆखो’, ‘बारह हाथ की धोबन देखो’, ‘गोरे कर्ज़न की लाट दॆखो’।

A page from MF Husain's autobiography in Hindi

इस टॆक्स्ट को ऑनएयर पढ़ने के बाद, दॊ बातों की तरफ़ मॆरा ध्यान गया- एक तो ये कि यह टेक्स्ट रेडियो फ़्रेंडली है, बॆहद बॊलचाल की चित्रमय शैली में, और दूसरी बात मुझे सुननेवालों की फ़ीडबैक से पता चली कि एमएफ़ हुसेन की ज़िंदगी के इस पहलू को उन्होंने पहली बार जाना। मेरे मित्र कवि और संपादक आर चेतनक्रांति ने जिस शाम मुझे ये किताब दी, मैं इसे बोल-बोलकर ही पढ़ता रहा। देर रात ये इरादा पक्का हो चुका था कि इस किताब की आडियो बुक इसके प्रभाव को दोगुना कर देगी।

चार फ़रवरी 2003. सुबह मैंने अपने दोस्त मुनीश को फ़ोन किया और अपनी यॊजना बतायी, वो राज़ी थे।

Design of the advertisement campaign for the Audio Book Suno MF Husain Ki Kahani, 2003

मुनीश इन दिनों जापान में हैं और उनकॆ पुस्तक-पाठ का अंदाज़ वैसा ही है जैसा मुझे चाहिये था। साउंड स्टूडियो में हमनें इस आत्मकथा ‘एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी’ सॆ चार क़िस्सॆ- ‘प्रायमरी स्कूल’, ‘दादा की अचकन’, ‘बाप की शादी में बेटा दीवाना’ और ‘मां’ रिकार्ड किये। मुनीश के पाठ ने टॆक्स्ट की गरिमा को बनाये रखा था, मैंने म्यूज़िक और साउंड एफ़ेक्ट्स लगाते हुए टेक्स्ट को सर्वॊपरि रखा। अगले दिन मैं इन चार क़िस्सों को एक सीडी में डालकर हुसेन साहब के लिये छॊड आया। मुझे बताया गया कि अगले हफ़्ते उनके दिल्ली आने की उम्मीद है। अगले हफ़्ते मैं अपने सबसे छोटे भाई इरशाद की शादी में सुल्तानपुर चला गया।

Select 6 audio tracks for press publicity.

इस बीच हुसेन साहब दिल्ली आये और उन्होनें वो सीडी सुनी, जो मैं उनके लिये छोड़ आया था। उन्होने घर पर मॆरॆ लियॆ यॆ मॆसॆज छुडवा दिया था कि वो मुझसॆ मिलना चाहते हैं। हैरानी की बात, तीन दिन बाद 16 फ़रवरी को वो लखनऊ में थे और मुझे फ़ॊन कर रहे थे कि मैं उनसॆ लखनऊ में ही मिल लूं। इसी दिन शादी थी और सुल्तानपुर में मॆरॆ रॊमिंग फॊन तक उनकी काल नहीं पहुंच सकी। यह बात उस पहली मुलाक़ात में हुसॆन साहब ने मुझे बताई जिसका मैं ऊपर ज़िक्र कर चुका हूं।

A page from MF Husain's autobiography | No mechanical typograpy used in the entire book, 2003

तयशुदा वक़्त के मुताबिक़ मैं चार बजे उनसे मिलने पहुंच गया था। मुझे यह जानने की व्यग्रता थी कि सीडी सुनने के बाद हुसेन साहब की क्या राय बनी है। हुसेन साहब थोडी ही देर में सामने से सीढियां उतरते हुए आए। वॊ क्रीम कलर का कुर्ता पहने हुए थे और काली पतलून, ऊपर से एक काला बॆतरतीब ढीला गाउन पहने थे, हाथ मॆं एक लम्बा ब्रश था।

MF Husain, Rashida Siddiqui and Anjum Siddiqii | Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

मैं खडा हो गया राशिदा साहबा ने मॆरा परिचय कराया। हुसेन साहब ने हाथ मिलाते हुए कहा- ‘एमएफ़ हुसेन’। बैठते ही बॊले कि उन्हें वॊ सीडी बहुत पसन्द आई है जॊ मैं छॊड गया था और वॊ मुझसे इसीलिये मिलना चाहते थे। बॊले योरप और बाहर के मुल्कों में यह फ़ॉर्म  बहुत पॉपुलर है। उन्होंने किसी हॉलीवुड  ऐक्टर का नाम लिया और बताया कि उसके रेसाइट कियॆ हुए कुछ एलपी बरसों पहले उन्होंने सुने थे और वो बहुत अच्छे थे। जो चार क़िस्से मैंने बतौर सैम्पल उनको दिये थे उनमें से सिर्फ़ ‘बाप की शादी में बेटा दीवाना’ में लगे एक साउंडएफ़ेक्ट से उन्होंने ज़रा सी असहमति जताई जबकि बाक़ी तीन से वो बहुत ख़ुश थे।

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प्रोडक्शन अभी शुरू नहीं हुआ था लेकिन हुसेन साहब बहुत एक्साइटेड थे। मैंने उनसे कहा कि यह तो बस नमूने के लिये तैयार किया गया था और आपको पसंद आया है तो फिर हम इसे पूरी प्लानिंग के साथ ढंग से करेंगे, और चाहेंगे कि चीज़ें सीधे आपकी निगरानी और मश्वरे से हों। उन्होंने इस पर रज़ामंदी जताई हालांकि यह भी कहा कि ये तभी हॊ सकेगा जब वो दिल्ली में होंगे। वो बोले आप इसे शुरू कर दीजिये और जब म्यूज़िक करवाइयेगा तो देखिएगा वो “आब्वियस न हो, जैसे कि कॊई दुख की बात हॊ तॊ दुख का म्यूज़िक; जैसा कि फ़िल्मों में हॊता है, या खुशी की बात पर खुशी का…ऐसा ठीक नहीं लगेगा बल्कि ऐसे मामलों में उल्टा करना भी अच्छा लगता है…”

Sleevs of the Audio Book Suno MF Husain Ki Kahani | 2003

सीडी के अलावा उन्होंने कहा कि कैसेट्स भी बनाइयेगा क्यॊंकि वो थोड़े सस्ते भी होंगे और लॊग खरीद सकेंगे। शुरुआती पांच-सात मिनट की बातचीत के बाद मुझे लग ही नहीं रहा था कि हुसॆन साब से मैं पहली बार मिल रहा हूं। उन्होंने कहा कि ये अब आपका प्रोडक्ट है और इसे आप जैसे करना चाहें, पूरी आज़ादी से कीजिये।

Excerpts from the audio book Suno MF Husain Ki Kahani, 2003

लगभग आधे घंटे की इस मुलाक़ात में कई ऐसे मौक़ॆ आये जब हम ठहाके लगा उठते, और तब हर बार वह अपनी लम्बी उंगलियॊं सॆ अपने काले गाउन को घुटनों पर वापस समेट लाते। उन्होंने मेरे घर-परिवार, बच्चों और निजी ज़िंदगी के बारे में भी बड़े कन्सर्न और अपनॆपन के साथ पूछा और बहुत सहॄदयता से सुना। उन दिनों वो अपनी फ़िल्म “Meenaxi: A tale of three cities” में लगे थे, तो कुछ बातें उस बारॆ में हॊने लगीं, फिर वॊ अचानक उठ खडॆ हुए और बॊले मिलते हैं, अभी ज़रा जा रहा हूं सिरी फ़ॊर्ट वहां अदनान सामी का थोडी देर में कन्सर्ट है।    

Barefoot MF Husain with his signature long brush | Image MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

अगले महीने काम पूरी रफ़्तार से शुरू हो गया। मैंने उनकी इस आत्मकथा ‘एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी’ सहित उस सारे उपलब्ध साहित्य को पढ़ने-दॆखनॆ की कॊशिश की जिससॆ हुसेन के बारे में मॆरी अंतर्दॄष्टि समॄद्ध हॊ सके। इस प्रॊडक्शन के दौरान लिये गये फ़ैसलों में हुसेन संबन्धित साहित्य के अलावा भी बहुत कुछ पढ़े-कढ़े हॊने की ज़रूरत थी। ये एक लगातार चलते रहनॆवाले इंसान की कहानी को उसकी गतिशीलता में पेश करने की चुनौती थी। ये कोई रेडियो ड्रामा नहीं हॊने वाला था, ये एक छपी हुई किताब को महज़ पढ़ देना भर नहीं था। ये एक बिल्कुल नया फ़ॉर्म ईजाद करने की मांग थी जो विषय के भीतर से उठ रही थी।

तब तक (आज से बीस साल पहले) भारत में पॉडकास्ट का नाम ज़्यादातर लोगों ने नहीं सुना था और ऑडियो बुक्स ज़्यादा से ज़्यादा दृष्टिबाधित लोगों के काम की मानी जाती थीं, जबकि उनकी भी संख्या आनुपातिक दृष्टि ने न के बराबर थी। दक्षिण भारत में अपवाद स्वरूप कुछ प्रकाशक बच्चों की किताबों के नाटकीय पाठ कराते थे जो आकशवाणी के ड्रामों का ही कोई सुधरा हुआ सा रूप था। 

MF Husain enjoys the moves of a belly dancer at his birthday | Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

दूसरी या तीसरी किसी मुलाक़ात में मैंने उनसॆ आग्रह किया कि वो इस ऑडियो बुक का एक इंट्रोडक्शन लिख दें और उसे अपनी ही आवाज़ में रिकॉर्ड भी करवा दें। गजगामिनी में मैंने उनकी आवाज़ में उनकी लिखी कविताओं के हिस्से सुने थे और वो बहुत प्रभावशाली रॆसाइटॆशन था।

हुसेन साहब खुशी-खुशी राज़ी हो गये। बॊले मैं अभी लिख लूंगा आज शाम रिकार्ड कर लेते हैं। रात 8 का तय हुआ।

A page from Husain's autobiography first published in Hindi, the whole book is handwritten and no typograpy used anywhere.

वो रात बॆहद कश-म-कश भरी थी। स्टूडियो स्टैंडबाई था और मेरे पास वहां से फ़ोन पर फ़ोन आते रहे क्योंकि 8 के बाद 9 फिर 10 और फिर 11 भी बज गये। सब लॊग उनकी आस छोड़ चुके थे और मेरे लिये यॆ सब्र का इम्तॆहान था। मैं उनकी राह दॆखता बैठा रहा। फ़ोन भी रीचॆबल नहीं था। 11.30 बजे के आसपास वो आये और बिना कुछ कहे सीधे ऊपर चले गये।

मॆरा खयाल है उन दिनों क्रिकेट का वर्डकप चल रहा था। थॊडी दॆर में नौकर मुझे ऊपर बुलाने आया। मैं जब पहुंचा तॊ पाया टीवी चल रहा था और हुसेन साहब कुछ लिखने में डूबे हुए थे। उन्होंने एक नज़र मुझे दॆखा और बोले बस हो गया। वो बीच-बीच में टीवी भी दॆख लॆतॆ। नीचे से खाने का बुलावा आ गया था। बॊले चलिये। जल्दी-जल्दी खाना खाया और उठ गये। मैं अभी हाथ धॊता हुआ सॊच ही रहा था कि गये कहां। नौकर ने आकर बताया कि वॊ गाडी में बैठे हैं और मॆरा इंतज़ार कर रहे हैं। रात 1 बजे के आसपास जब हम स्टूडियो पहुंचे तॊ वहां एक नयी ऊर्जा  सी आ गयी।

चाय जब तक आती उन्होंने आखिरी चन्द लाइनें लिखीं और मुझे सुनाईं। इंट्रोडक्शन तैयार था-

MF Husain with Rashida Siqqiqui and Anjum Siddiqui | Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

“किसी ने कहा- ‘अपनी कहानी लिखो’।

पूछा ‘क्यों?’

कहा ‘तुम पर फ़िल्म बनाई जाए।’

‘फ़िल्म ! ज़रा मेरा हुलिया तो देखिये ! क्या कॉमेडी बनाने का इरादा है ?’

‘हां, ऐसी कॉमेडी कि आप हंसते-हंसते रॊ पड़ें ।’ 

पिछली सदी के आखिरी दहैके में ,बस यूं ही काग़ज़ के एक टुकड़ेपर लिखना शुरू कर दिया- ‘दादा की उंगली पकड़े एक लड़का।’ इस पुर्ज़े को पढ़कर न कोई हंसा न कोई रोया। हां लदन में एक साहबे फ़हम माजिद अली अह्लेसुख़न की नज़र इस पुर्ज़ॆ पर लिखी इबारत पर पड़ी। एमएफ़ से कहा ‘आप ये फ़िल्म स्क्रिप्ट छोडें  और अपनी कहानी को किताब की शक्ल दें तो बॆहतर है।’ इस बात पर हिम्मत बंधी, और कहीं नहीं बैठा बस चलते-फिरते लिखता ही गया। चार-पांच साल के बाद पुर्ज़ों का एक ज़ख़ीम पुलिंदा बग़ल में दबाये प्रेस की तरफ़ छपवाने चला कि अचानक रास्ते में किसी ने पूछा ‘हम आपके हैं कौन?’ तो एमएफ़ की बग़ल से वो पुलिंदा फिसल पड़ा।’

उसे बीच रास्ता छोड़ सात साल तक ग़ायब।

'हम आपके हैं कौन 'सवाल पर जवाबन गजगामिनी फ़िल्म बना डाली। लौटे तो वो पुलिंदा उसी रास्ते पर पड़ा मिला। किताब छप गयी। लॊगों ने हिंदी में पढ़ी, अंगरेज़ी में पढ़ी और अब बंग्ला और गुजराती में पढ़ी जायेगी।

लेकिन फिर किसी ने कहा कि कहानी पढ़ने से ज़्यादा सुनने में अच्छी लगती है। याद हैं वो दादी अम्मा-नानी अम्मा की कहानियां ! जिन्हें सुनते-सुनते बचपन मीठी नींद सॊ जाया करता।

आख़िर में मिलते हैं इरफ़ान साहब, जो मेरी कहानी को ज़बान देते हैं, जिसे आप चलते-फिरते कहीं भी सुन सकते हैं।

तो, आइये और सुनिये एमएफ़ हुसेन की कहानी।”

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Introduction of the Audio Book Suno MF Husain Ki Kahani written and voiced by MF Husain, 2003
MF Husain in the sound studio New Delhi, 2003 | Photo Irfan

स्टूडियो में इस इंट्रोडक्शन को रिकॉर्ड कराते हुए वो बड़े ही स्पॊर्टिंग अंदाज़ में टेक-रीटॆक दॆतॆ रहे। बस ये ज़रूर बॊले कि लिपसाउंड और न्वॉयज़ वग़ैरह एडिट कर लेना।

ऑटोग्राफ़, फ़ोटो, पैर छूना और हाथ मिलाना… हर कोई हुसेन साहब को इतने नज़दीक पाकर खुश था। एक साहब बोले ‘मेरे लड़के के सिर पर हाथ रख दीजिये’ ‘सिर पर हाथ रखूंगा तॊ ये गन्जा हो जायेगा’ हंसते हुए उन्होंने उसे गले लगा लिया।

Irfan with MF Husain in a recording session of audio book Suno MF Husain Ki Kahani, 2003 | Photo Radio Red Archive

घर लौटते-लौटतॆ रात के ढाई पौने तीन बज गये होंगे। बाहर ही खड़े-खड़े कुछ और बातें हॊती रहीं।अचानक उन्हें याद आया कि सुबह की फ़्लाइट है। ड्राइवर से कार की हेडलाइट जलवाई और टिकट में टाइम दॆखने लगे। फ़्लाइट 5.30 बजे की थी। बोले आप कैसे जायेंगे। ‘बाइक से’ मैंने कहा और इजाज़त ली। बॊले रात का वक़्त है अगर बाइक पंचर हॊ जाये तो ! बड़ी मासूमियत से उन्होंने पूछा ‘इसमें स्टेपनी नहीं हॊती!’ हम दोनों ठहाका लगा उठे।

ये कन्सर्न और ये प्यार मैंने हुसॆन साहब के दिल में हमेशा पाया।

MF Husain in a recording session of his audio book titled SUNO MF HUSAIN KI KAHANI

हुसेन साहब एक ज़मीनी इंसान थे। इंसानों से मिलने और उनके बारे में राय बनाने का उनका लंबा तजर्बा था। सितम्बर 2005 तक उनसे हुई लगभग सौ मुलाक़ातों के सौ रंग हैं और हर रंग उनमॆं छिपे बड़प्पन की निशानदॆही करता है। मैंने उन्हें कभी उकताते हुए या तैश में आते हुए नहीं देखा। जीवन उनके लिये एक उत्सव था। एक शाम इंडिया इंटरनॆशनल सेंटर के कैफ़्टॆरिया में मिलना तय हुआ। वो दूर सामने की टॆबल पर कुछ दॊस्तों कॆ साथ बैठे थॆ, जब मैं पहुंचा। मुझे आता दॆख वो खड़े हॊ गये। शायद वो सबके साथ इसी तरह से पॆश आने के आदी थे। मॆरा परिचय सबसॆ कराया और जब तक हम साथ रहे उन्होंने मुझे अकेला महसूस नहीं हॊने दिया।

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लॊग कहते हैं कि वो वक़्त के पाबंद नहीं थे जबकि मॆरा अनुभव अलग ही रहा। मुझे हमेशा ये हैरानी हॊती रही कि बिना किसी अप्वाइंटमेंट डायरी, बिना किसी पीए के वो अपने इतने सारे अप्वाइंटमेंट्स कैसे याद रखते थे। नवासी-नब्बे साल की उम्र और क्या ग़ज़ब की याददाश्त! एक सुबह 10 बजे कुमार आर्ट गैलरी में मिलना तय हुआ। एक दिन पहले ही वो दिल्ली आये थॆ। सुबह नौ बजे उनका फ़ोन आ गया- “हा हा हा कैसे हैं जनाब सैयद मॊहम्मद इरफ़ान साहब!” फिर बॊले “वो जो दस बजे मिलना था वो नहीं हो पायेगा। ऒबॆराय में मिलते हैं 1- 1.30 तक लंच पर।”

Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

मैं समझता हूं ज़्यादातर लोग शोहरत  और दौलत के हल्के-फुल्के मक़ाम पर भी पहुंचकर उतने इंसान नहीं रह जाते। और ये बात भी हुसॆन साहब को शोहरतयाफ़्ता, दौलतमंद लॊगों से अलग करती है। वो क्या है जो हुसेन को भीड़ से अलग करता है ? इसका एक अच्छा अंदाज़ा एमएफ़ हुसेन की आत्मकथा को पढ़ने से लग जाएगा। बल्कि मैं तो कहूंगा इस आत्मकथा के आडियो वर्ज़न “सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी” को सुननॆ से कुछ और भी बातें पता चलेंगी। क्योंकि उन्होंने इंट्रॊडक्शन के अलावा चार चैप्टर ख़ासतौर पर इसी आडियो बुक के लिये लिखे थे। जब मैंने कहा कि आपने अपनी कहानी में ये कहीं नहीं बताया कि आप नंगे पैर क्यों चलते हैं ! लॊग ये जानना चाहते हैं। तो वो इस पर लिखने को तैयार हॊ गये बल्कि बॊले “मैं सॊचता हूं दो-एक बातें मुझे और कहनी थीं वो भी अभी लिख दूं…किताब का अगला एडीशन जब आयेगा तब आयेगा, फ़िलहाल आप इन्हें इस आडियो वर्ज़न मॆं शामिल कर लीजिये क्योंकि ये तॊ अभी बन ही रही है।”

Cover | Select poems of Muktibodh | Cover Image Credit Shachin Yadav

दूसरे तीसरे दिन फ़ॊन आया – “आ जाइयॆ टाइटिल मिल गया है।” ये उस पीस के टाइटिल की बात थी जो उन्होंने नंगेपांव चलने के संदर्भ मॆं लिखा था। पिछले ही महीने मैं उनके लिये हिंदी बुक सेंटर से कविताओं की कुछ किताबें छोड़ आया था। मैंने देखा उनके हाथ में उन्हीं में से एक किताब मुक्तिबॊध की प्रतिनिधि रचनाएं है। वढॆरा आर्ट गैलरी में उन्होंने मुझे अपनी उर्दू में लिखी वो कहानी बॊल-बॊल कर लिखवाई-  बॊले शीर्षक इसी किताब से लिया है--

“मुझे क़दम-क़दम पर चौराहे मिलते हैं”

1964. आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ़ मेडिकल साइंसॆज़, दिल्ली। यहां मुक्तिबॊध महीनों ख़ामॊश कोमा में लेटे रहे। एक दिन उनकी सांस चलते-चलते थककर बैठ गयी। लॊग जमा हुए और उनके शव को कांधा दिया। उनमें से एक कांधा एमएफ़ का था। ज़िंदगी में तो मिल नहीं सके, उनकॆ आख़िरी सफ़र में घाट तक पहुंचाने अपने क़दम उठाये। कहा जाता है कि किसी भी इंसानी शव के साथ कम-अज़-कम चालीस क़दम ज़रूर चलना चाहिये। क़दम तो उठाया मगर न मालूम क्या सूझी कि अपने जूते उतार फेंके और आज चालीस साल सॆ ये पैरों का नंगापन जारी है।

जूते न पहनना कॊई ऐब नहीं। हिंदुस्तानी तहज़ीब में जूते बाहर उतारकर घर में दाखिल हॊते हैं और ख़ासतौर पर खाने बैठें तॊ जूते उतारकर।

ये भी कोई बात हुई कि अपनी धरती के सीने पर, पैरों में नामालूम किस जानवर की खाल लपेटे चलते फिरते रहें। इस धरती की सुनहरी मिट्टी की गरमी और मखमली घास की ठंडक को ज़रा अपने नंगे पैरों से छूकर तॊ दॆखिये, आपका हर क़दम, ज़मीन को चूमने लगेगा। ज़मीन का नशेब-ओ-फ़राज़ यानी उतार चढ़ाव आपके पैरों में ज़िंदगी का रक़्स भर दॆगा। फिर सफ़र चाहे कितना ही लम्बा हो आपके क़दम थक नहीं पायेंगे।

हम हिंदुस्तानियॊं ने सदियों से अपने पैरों को बिना किसी रोकटोक के खुला छोड़ रखा था कि अचानक ही अंग्रॆज़ हमारे मुल्क में बूट-सूट लॆकर घुस पड़े और बर्तानवी टोप की धौंस ने हमारे गले में टाई कस दी और पैरों को जूतों में जकड़ दिया। ये अंग्रॆज़ी जूतों का राज कोई डॆढ सौ साल चला और जब निकाले गये, तो आज भी कहा जाता है कि अंग्रेज़ तो गये मगर अपनी औलादें काफ़ी छोड गयॆ। और ये हमारॆ दॆसी अंग्रेज़ ही हैं जिन्होंनॆं एमएफ़ को बम्बई वेलिंगटन क्लब से डिनर के बीच ही बाहर निकाल दिया। वजह ? नंगेपैर ।

ये नंगेपैर जो पार्लियामेंट जा सके, राष्ट्रपति भवन कॆ ग़ालीचों पर चल सके और बाग़ात की सैर की। मगर अपने ही मुल्क के किसी क्लब में नंगेपैर का दाख़ला मना।

ये एमएफ़ के नंगेपैर पर कई क़िस्सॆ कहानियां लिखी गयीं। किसी ने एमएफ़ को चलते फिरतॆ दॆखकर टोका- ‘जूते कहां छोड़ आये?’

जवाब दिया- ‘जूते हों तो कहीं छॊडूं ! क्या करूं मेरी क़िस्मत में जूते ही नहीं लिखे।’

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Podcast Chapter Mujhe Qadam Qadam Per Chaurahey Miltey Hain | Suno MF Husain Ki Kahani

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MF Husain with film actress Madhuri Dixit | Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

हुसेन साहब समय-समय पर फॊन करते और काम की प्रगति का हाल-हवाल लेते। मुझे कोई बात पूछनी हॊती तो मैं फ़ॊन कर लॆता। प्रॊग्राम लगभग पांच घंटे का बन रहा था। म्यूज़िक के लिये हुसेन साहब बहुत पर्टीकुलर थे। बॊले गजगामिनी के कुछ म्यूज़िकल हिस्से भी इस्तॆमाल कीजिये। उन्हॊंने एक दिन ऐलान किया कि म्यूज़िक डायरॆक्टर समेत प्रॊडक्शन टीम के सभी सदस्यों को गजगामिनी दिखाएंगे। रात दस बजे के आसपास हम सभी ने साउंड स्टूडियो में हुसेन साहब के साथ गजगामिनी देखनी शुरू की। वो बीच-बीच में फ़िल्म को रुकवा दॆतॆ और फ़िल्म रिवाइंड करवाते। ऐसा लग रहा था कि वो सारी रात इस फ़िल्म कॆ हिस्सों पर बात करते रहेंगे। उन्होंने इस फ़िल्म को बनाने के बीच हुए कई तजुर्बे शॆयर किये और कई ऐसे एनेक्डोट्स बताए जो अब तक कहीं प्रकाशित नहीं हुए हैं।

Husain often slept in the galleries where he was working. Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

हुसेन साहब ने जो क्रियेटिव फ़्रीडम मुझे दी उससे मुझे आउट ऑफ़ द बाक्स सॊचने का हौसला बंधा। एक दिन मैंनें उनको पैकेजिंग की डमी डिज़ाइन दिखाई और कहा कि ये तो बस नमूने के लिये है, फ़ाइनल डिज़ाइन आपको ही बनानी है। इस पर वो डिज़ाइन दॆखकर बहुत खुश हुए और बोले आपने अच्छी बनाई है इसी को फ़ाइनल कीजिये। मैंने बार-बार चाहा कि डिज़ाइन में वो कोई फॆरबदल करॆं पर वो अपने फ़ैसले पर अटल रहे। यहां तक कि जो ड्राइंग्स मैंने चुनी थीं, वो भी वही रहीं और कलरथीम जो मैंने ब्लैक ऐंड व्हाइट सजेस्ट की थी उसे भी उन्होंने जस का तस रखने दिया।

On Disc prints, 2003

आज जब स्मॄतियों को खंगालने बैठा हूं तो बस ऐसी ही मन को अच्छी लगने वाली बातें एक दूसरे सॆ आगे निकलने की कोशिश कर रही हैं। यादों की शॄंखला टूटने का नाम नही लॆ रही है।

बहरहाल हुसेन साहब इस आडियो वर्ज़न की पॆशकश से बहुत खुश हुए।

मा-अधूरी, दादा की अचकन और महमूदा बीबी जैसी कहानियां सुनते हुए उनकी आंखें भर आई थीं।

फिर तो अपने दोस्तों और चाहनेवालों को उन्होंने दॆश सॆ लॆकर विदॆश तक इस आडियो वर्ज़न के तॊहफ़े दिये, महफ़िलों और यारों के जमघट के बीच बस यही धूम रही।

Tabu engrossed in a brochure of Meenaxi the tail of three cities at Badar Baug | Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

उस दिन फ़िल्म ऐक्ट्रेस तब्बू आ गयीं। हुसेन साहब उनको भी “सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी” का एक सीडी सेट देना चाहते थे। मुझसे बॊले, है क्या ? नहीं था। बोले- “आज ही घर में बोरिया न हुआ।” सब लोग हंस पड़े। वो हॊटल ताज में रुकी थीं जहां सुबह मैंने एक सेट पहुंचवाया।


Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

बाद की मुलाक़ातों में हुसेन साहब अपनी उस कॉमेडी फ़िल्म की बातें किया करते थे जिसे वो बस्टर कीटन की कॉमेडी स्टाइल में बनाना चाहते थे। फ़िल्म पूना, पटियाला और पटना से मुम्बई आई तीन कामकाजी लडकियों के जीवन के इर्द-गिर्द बुनना चाहते थे। वॊ मुझे इस फ़िल्म की टीम का हिस्सा मानते थे और स्क्रिप्ट की कई बारीकियां डिस्कस किया करतॆ थॆ। ये तीनों लडकियां एक वर्किंग वीमेन्स होस्टल में रहती हैं जिसकी वॉर्डन के रोल के लिये वो नादिरा बब्बर को कास्ट करना चाहते थॆ।

Iqbal from a series inspired by Nagesh Kuknoor movie 2005 | Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

हमारी आखिरी मुलाक़ात ऒबराय हॊटल में हुई। लौटते हुए वॊ फ़िल्म इक़बाल की बहुत तारीफ़ करते रहे। अपनी कामेडी फ़िल्म के शुरू न कर पाने की वजह, अपना नया प्रोजेक्ट बताते रहे, जिसे उन दिनों उन्होंने हाथ में ले लिया था। वो अपने खिलाफ़ दायर तमाम बॆसिरपैर के मुक़दमों की तफ़्सील बताते रहे। उन्होंने बताया कि दॆश भर मॆं बिखरे हुए तमाम मुक़दमों के चक्करों में उनका बहुत सा पैसा और वक़्त बर्बाद हॊता है। उन्होंने यह भी बताया कि उनके वकील सारे मुक़दमों को दिल्ली लाने की कॊशिश कर रहे हैं और यह भी कि उन्हें लगता है जैसे उनपर जज़िया लगाया जाता है। यह कहते हुए मैंने उनके चॆहरे पर पहली बार खीझ देखी।  

Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

इसके बाद वो चले गये थे।

नफ़रत के झंडाबरदारों के बारे में उन्होंने अपनी कहानी में कहा-

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Podcast Suno MF Husain Ki Kahani | Mrignayani | Vol 3 Track 6

“…खुली हवा में उनका दम घुटने लगता है। ये तंगनज़र अपनी चालबाज़ अक़ल से, इंसान की हासिल की हुई बुलंदियों को मिटाने में लगे रहते हैं। ये बुराईपसंद लोग, कुंवारेपन के मासूम माथे पर लगी बिंदिया को भी कलंक का टीका ठहराने से बाज़ नहीं आते। ये रीतिरिवाजों के ठेकेदार अक़ल और समझ के पहरेदार, संस्कॄति और सभ्यता के चौकीदार लट्ठ लिये बस्ती की गलियों में फिरते रहते हैं। अंधेरी रातों में , खुली खिडकियों में बंद आंखें तलाश करते रहते हैं। बंद मुट्ठी में जलन और नफ़रत की आग से उनकी उंगलियां झुलस रही हैं…।”

(सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी, वाल्यूम-3, ट्रैक-6)

हुसेन साहब को पेंटिग बनाते हुए देखना भी एक नया अनुभव था।

वढेरा आर्ट गैलेरी में ऊपर वो कोई बहुत बड़ा स्पेस नहीं था पर रॊशनी पर्याप्त थी। मुझसे बोले Meenaxi का म्यूज़िक बन कर आ गया है आपको सुनाता हूं। फिर लड़के को कुछ रंग बाज़ार से लाने को कहा। म्यूज़िक चलता रहा और बीच-बीच में वो उन गानों के बनने की प्रक्रिया और अपनी सोच डिस्कस करते रहे। कैनवस 2' x 2.30' आकार के थे।

Video recorded while MF Husain paints, 2003

हुसेन साहब ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गये थे। उन्होंने वो कुर्ता पहना था जिसका दामन आगे से काटकर उन्होंने हटा दिया था। घंटों काम करते हुए रमे रहने वाले हुसेन साहब काम कर चुकने के बाद अपने ब्रश खुद साफ़ करते, खुद सारे रंगों के डिब्बे बन्द करते और सारी इस्तेमाल हो चुकी चीज़ों को उनको उनकी जगह पर रखते।

With his favourite glass of black tea | Image courtesy MF Husain A Pictorial Tribute by Pradeep Chandra

ज़िंदगी के लम्बे इम्तेहानों ने हुसेन साहब को मानवीय मूल्यों में गहरी आस्थावाला चित्रकार ही नहीं, इंसान भी बनाया। एक बड़ा आदमी हर मामले में बड़ा होता है और छोटों को भी बड़प्पन के एहसास से भरता है। हुसेन साहब को समझने और समाज में उनके अवदान के आकलन में समय लगेगा। अगर यॆ थॊड़ा सा समय मैंने उनके साथ न बिताया हॊता, तॊ सच मानिये मॆरॆ लिये इस बात पर यक़ीन करना नामुमकिन होता।

इरफ़ान | June 2011

A press note (page-1) for the launch function of audio book Suno MF Husain Ki Kahani at Hotel Ashoka, 2003
A press note (page-2) for the launch function of audio book Suno MF Husain Ki Kahani at Hotel Ashoka, New Delhi 2003
TO LISTEN ALL THE 54 EPISODES of SUNO MF HUSAIN KI KAHANI Cont: ramrotiaaloo@gmail.com

Newspapers and Magazines
Business Standard, September 14, 2003
Rashtriya Sahara
The Weekly News Magazine Outlook, October 20, 2003
India Today, March 22, 2004
The India Express
Jansatta
Samayantar
Northern India Patrika
Prabhat Khabar, January 1, 2004
Sahara Samay, September 27, 2003
Amar Ujala
Navbharat Times
Hindustan
India Today
The Indian Express, September 12, 2003
Newspapers and MAGAZINES clippings can be better read here.

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Syed Mohd Irfan

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Broadcast Journalist | Archivist | Music Buff | Founder Producer and Host of the longest running celebrity Talk Show Guftagoo on TV and Digital #TEDxSpeaker #Podcaster #CreativeWriter