गैसलाइटिंग शब्द का जन्म अंग्रेजी उपन्यासकार और नाटककार पैट्रिक हैमिल्टन के 1938 में लिखे गैसलाइट नाटक से हुआ है।
हालांकि गैसलाइटिंग अपने आप में एक राजनीतिक या सामाजिक अवधारणा से अधिक एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है, लेकिन कौन कह सकता है कि यह अन्य संदर्भों में प्रकट नहीं हो सकती है। मेरी समझ में इसके कुछ ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक कारक भी हैं जिनकी रोशनी में गैसलाइटिंग को समझा जाना चाहिए।
इतिहास गवाह है कि, सत्ता के उच्च पदों पर बैठे लोगों ने अक्सर दूसरों को नियंत्रित करने के लिए इस हेराफेरी की रणनीति का इस्तेमाल किया है। सत्ता में बैठे लोग, अशक्त और असहाय लोगों के बीच वास्तविकता की धारणा को अस्थिर करके नियंत्रण बनाए रखने और उन्हें प्रभावित करने के लिए गैस लाइटिंग को उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं।
राजनीति में आज भी, नेता या सरकारें नरेटिव्स सेट करने, असहमति को दबाने या जनता की राय में हेरफेर करने के लिए गैसलाइटिंग का इस्तेमाल करते देखे जा सकते हैं। यह इन दिनों प्रचार और दुष्प्रचार के अभियानों और इतिहास को फिर से लिखने के प्रयासों में देखा जा रहा है।
सर्वसत्तावादी (ऑथॉरिटैरियन) ताकतें अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए यह मनोवैज्ञानिक रणनीति अपनाती रही हैं। वे गैसलाइटिंग का उपयोग विरोधियों को कमजोर करने, भ्रम पैदा करने और बड़ी आबादी में असहायता की भावना को बढ़ावा देने के लिए भी करती हैं।
निरंकुश नेता असहमतियों को दबाने और आलोचनात्मक सोच को हतोत्साहित करने के लिए गैसलाइटिंग का उपयोग करते हैं। वे सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए एक ओर तो सूचनाओं के विश्वसनीय स्रोतों को संदिग्ध बनाते जाते हैं और दूसरी ओर उनके स्थान पर छद्म आख्यानों को हवा देते हैं जिससे अनिश्चितता और भ्रम को घना किया जा सके। आज यह प्रोपगैंडा और प्रचार पारम्परिक मीडिया के अलावा डिजिटल मीडिया के ज़रिये भी बखूबी किया जा रहा है।
गैसलाइटिंग के उदाहरण आपसी रिश्तों, परिवारों या समुदायों के भीतर भी चलाती रहती है। इसके पीछे नियंत्रण, हेरफेर या कुछ सामाजिक मानदंडों के सुदृढीकरण की इच्छा भी छुपी होती है। पारिवारिक तानेबाने के बीच पुरुष वर्चस्व और प्रभुत्व की आकांक्षा इसका प्रमुख कारण है जबकि कुछ समाजों में प्रचलित सांस्कृतिक विश्वास और मान्यताएं अथॉरिटी को चुनौती देने की राह में बाधा बन कर खडी रहती हैं। गैसलाइटिंग ऐसे वातावरण में पनपती है जहां व्यक्ति के सामने झूठ को चुनौती देने की शक्ति कम होती है, इससे ऐसे माहौल को बढ़ावा मिलता है जहां हेरफेर पर किसी का ध्यान नहीं जाने की अधिक संभावना होती है। उदाहरण के लिए, एब्यूज़िव रिश्तों में, एक साथी दूसरे पर प्रभुत्व और नियंत्रण बनाए रखने के लिए गैसलाइटिंग का उपयोग कर सकता है।
दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीसरे और फाइनल ईयर के छात्रों ने अपनी डिप्लोमा प्रस्तुति के लिए लगभग 86 साल पहले लिखे नाटक गैसलाइट को इसी नाम से मंचित करके एक ज़रूरी हस्तक्षेप किया है।
नाटक की कहानी एक ऐसे पति के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपने घर में गैस की रोशनी कम करके अपनी पत्नी को एक तरफ उसकी वास्तविकता पर सवाल उठाने के लिए उकसाता है और दूसरी तरफ जोर देकर कहता है कि कुछ भी नहीं बदला है। समय गुजरने के साथ, गैसलाइटिंग शब्द मनोविकार के एक रूप का वर्णन करने के लिए विकसित हुआ है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति में संदेह के बीज बोना चाहता है, ताकि वे अपनी धारणा, स्मृति या विवेक पर खुद ही शक करने लगे।
नाटक यह रेखांकित करता है कि घरेलू हिंसा सिर्फ शारीरिक ही नहीं होती, उसके मनोवैज्ञानिक पक्ष भी बहुत प्रबल हैं जिन पक्षों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता ।
नाटक के निर्देशक शेखर कांवत एक कल्पनाशील और धुन के पक्के व्यक्ति हैं यह बात उनके पहले के कामों में बखूबी देखी जा सकती है। खुद उन्होंने बताया कि इस सायकोलॉजिकल थ्रिलर को उसकी परतों के बीच से उभारकर लाना एक चुनौती भरा काम था। शेखर ऐसी चुनौतियों से पीछे नहीं हटते और उन्होंने यह कर दिखाया। पैट्रिक हैमिल्टन के नाटक की मूल आत्मा को हिंदी अनुवाद के ज़रिये प्रियम्वर शास्त्री ने सफल ढंग से पेश किया जिसे मंच पर अभिनेताओं ने बहुत प्रभावशाली ढंग से निभाया।
नाटक की कहानी जिस वैभवशाली परिवेश में रची गयी है उसका एहसास मंचसज्जा और प्रकाशव्यवस्था की अनुकूल कल्पना के बिना संभव नहीं था। घटनाएं मुख्य रूप से लिविंग रूम में ही घटित हो रही थीं जिसमें फर्नीचर, दीवारें, कॉस्ट्यूम्स और प्रॉप्स बेहद चुस्त और अनिवार्य ढंग से इस तरह चुने गए हैं जिनसे चरित्रों की मनोदशा को एक ही समय में जटिल और सहज इंटरप्ले का विस्तार मिले। अभिजात्य जीवन के सुख और संतोष को गहरे संदेहों और दोषारोपण में पलक झपकते बदलता देखना और मनोविकार की आक्रामक-मुलायम रणनीति के सामने एक स्त्री का आत्मसंदेह से घिरे रहना दर्शकों को लगातार एक तनाव में रखता है।
सेट के कुछ हिस्से रहस्य को गहराने में इतने कारगर ढंग से रचे गए कि वहां गोचर दृश्यों में अगोचर की गुत्थियां उलझती रहती हैं जबकि खिड़की के बाहर और तहखानों के कल्पना दृश्य लगातार आपको कुतूहल से भरते रहते हैं। इस सबमें प्रकाश व्यवस्था ने अपनी एक ऐसी भाषा चुनी है जो दिखाने छुपाने के करतबों को असरदार ढंग से संभव बनाती चलती है। संगीत में एक रेपीटीटिव मोटिफ रहस्य के संकेतों को एक दिशा देता चलता है और ऐसे एकाधिक अवसर हैं जहां भावनाओं का विस्फोट ध्वनि प्रभावों के माध्यम से चौंका देने वाला है।
नाटक के सभी अभिनेता लगातार अपनी भूमिकाओं को इस ज़िम्मेदारी से निभा रहे हैं कि उनसे नाटक का मंतव्य पूरी कसावट और स्थिरता के साथ निखर कर आता है। यहां मैंने एक दृश्य बीच बीच में थोड़ा कमजोर तब ज़रूर पाया जब डिटेक्टिव ने बैला को व्हिस्की पीने को दी और दर्शकों की तरफ से थोड़ी हँसी की फुलझड़ियाँ सुनाई दीं।
समकालीन समाज, राजनीति और मानवीय विकारों का ऐसा प्रासंगिक नाटक आज देशभर में खेले जाने की ज़रूरत है जो शायद फिलहाल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की आगामी योजनाओं का हिस्सा नहीं है लेकिन इस नाटक की प्रस्तुतियां जल्द ही फिर से हों और अलग अलग स्थानों पर भी हों तो इससे वो लोग लाभान्वित हो सकेंगे जो निरुपाय, दिशाहीन और घुट घुट कर जीने पर विवश हैं।
Irfan
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