ऐसा भी कुछ होता है ?
~Nirmesh Barni
Free thinker ऐसे विचारकों या लोगों को कहा जाता है जो खुद को किसी खास विचारधारा से बांधने के बजाए स्वतंत्र रूप से विचार करें।
~Shravan
यू आर ए गुड क्वेश्चन!
सामान्य रूप से थिंकर या चिन्तक स्वतन्त्रचेता प्राणी माने जाते रहे हैं। वे लोग जिनका दिमाग किसी दिए गए समय और दायरे में किसी वस्तु, संरचना या विचार की वैधता जाँच कर सके, वे थिंकर माने जाते थे। उसके आगे फ्री लगाने की जरूरत नहीं थी। आज संकट यह है कि थिंकर कहे जाने वाले लोग तो हैं लेकिन उनके "फ्री" होने पर संदेह है। इसलिए आपने सार्वजनिक रूप से यह सवाल पूछ लिया।
वास्तव में "विश्वविद्यालय" नामक संस्था के उदय के साथ इसमें एक स्ट्रीम लाइनिंग आयी- आपको इसी दिशा में सोचना है। उसी के साथ, औद्योगिक क्रांति और उसके बाद एशिया, अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका और उत्तर अमेरिका के औपनिवेशीकरण के साथ थिंकर की जगह बुद्धिजीवी ने ले ली। यूनिवर्सिटी में पढ़ाना और थिंकर होना जैसे एक दूसरे का पर्यायवाची हो गया।
जिन देशों ने दूसरे देशों को गुलाम बनाया, उनके बुद्धिजीवी अज़ीब हालत में थे। जब वे "अपने देश" यानी इंग्लैंड या फ़्रांस के लिए सोचते थे तो "क्रिटिकल" जो जाते थे, जब गुलाम देश के लिए सोचते थे तो उनके सामने देश का हित आता, अपनी प्रजाति की श्रेष्ठता का हित सामने आता। उपनिवेशित जनों पर वे वैसा ही नहीं सोच पाते थे। यानी आधा फ्री थिंकर आधा उपनिवेश के हित में।
दादा भाई नौरोजी ने ब्रिटिश बुद्धिमत्ता के इस दुचित्तेपन पर उंगली तो रखी लेकिन कोई क्रिटिकल रूख नहीं अपनाया।
1900 के बाद , भारत में ब्रिटेन की तरह का शुरुआती द्वैध देखा जा सकता है। भारतीय बुद्धिजीवी जब ब्रिटिश उपनिवेश के ख़िलाफ़ सोचते थे तो वे क्रिटिकल रहते लेकिन प्राय: अपनी सामाजिक स्थित से बाहर न आ पाते। यह डॉ. अम्बेडकर की खिन्नता का एक कारण था।
महात्मा गाँधी ने इस मिथक को एक हद तक तोड़ दिया। वे एक साथ ब्रिटेन के ख़िलाफ़ बात करते हुए भी उपनिवेश से घृणा नहीं करते थे। उन्होंने अंबेडकर के साथ भी गहरे मतभेद से एक स्वाभाविक सहयोग की तरफ़ हाथ बढ़ाया।
फ्री थिंकिंग की दिशा में सबसे बड़ी घटना वियतनाम का युद्ध थी जब अमेरिकी चिंतकों ने वहाँ की जनता से प्रेम का इज़हार करते हुए अमेरिकी शासन की तंगदिली खोलकर रख दी। उनके अत्याचार के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए। वे एक साथ अमेरिका से प्रेम कर रहे थे, वे वियतनाम में अमेरिका के अत्याचार के ख़िलाफ़ भी थे।
नोम चोम्स्की इसके बड़े उदाहरण हैं कि एक फ्री थिंकर कैसे हुआ जा सकता है।
एक समय, जेनएयू में फ्री थिंकर जैसा एक समूह अस्तित्त्व में आया था जो अपने को अलहदा कहता था लेकिन उसकी बौद्धिक आभा लंबी दूर तक न जा सकी।
आज भारत में फ्री थिंकर होना बहुत दिक़्क़त में होना हो गया है। बुद्धिजीवी, अध्यापक, पत्रकार लगभग सरकार पर निर्भर हैं। सोच-सोचकर बोलना है, लिखना है। एक साथ सरकार के प्रतिरोध में दिखना है लेकिन कहीं आफ़त न आ जाये, यह भी सोचना है। ऐसे में आदमी तीन-चार बार सेल्फ़ सेंसर होकर बोल रहा है।
फ्री थिंकर इस सबसे आगे व्यापक मानवता के हित में सोचता और बोलता है( हो सकता है कि कोई फ्री थिंकिंग करता हो और सेल्फ-सेंसर्ड स्पीच का शिकार हो), उसके लिए राष्ट्र, समुदाय और धर्म से बाहर दुनिया अस्तित्त्व में दिखती है। दुर्भाग्य से भारत में वह माहौल कभी नहीं रहा। एक समय था जब सरकार चिंतन की वास्तविक आज़ादी तो नहीं देती थी लेकिन "डेमोक्रेटिक आउटलुक" दे देती थी। इस सरकार ने उसे भी हस्तगत कर लिया। इसलिए लोगों को लगता है कि मामला ज्यादा बिगड़ गया है।
इसी के साथ भारतीय बुद्धिजीवियों की शब्द सम्पदा भी राज्य नियंत्रित होती गयी है। वे एक दायरे में राज्य से लड़ते हुए दिखाई देते हैं लेकिन जब जीत भी जाते हैं तो पाते हैं कि उसका लाभ खुद राज्य ने ले लिया।
एक बौद्धिक दायरे के रूप में दिल्ली का पतन इसका बड़ा उदाहरण है। यहाँ थिंकर कम होते गए हैं, 'थिंक टैंक" की संख्या बढ़ती गई है। यह थिंक टैंक जिन जगहों से वित्तपोषित होते हैं, उसके ख़िलाफ़ कोई ठोस बात नहीं कह पाते(एक दो अपवाद हो सकते हैं)।
फ्री थिंकर का उदय अभी दूर की बात है।
~Rama Shankar Singh
संक्षेप में मौजूदा फ्री थिंकर को पूंजीवाद का मोहरा कह सकते हैं?
~Syed Mohd Irfan
जब फ्री थिंकर आएं तब न!
~Rama Shankar Singh
अगर पूंजीवाद dominant अवधारणा है तो फ़्री थिंकर वही होगा जो उसकी आलोचना करे। अब अगर मार्र्सवाद प्रबल या hegemonic हा तो फ़्री थिंकर उसकी भी आलोचना करेगा यानि कि एक ही समय में पूँजी और मार्क्स दोनों की आलोचना करने वाला फ़्री थिंकर हो सकता है। वो पहले सोचता है और उसे मुक्त रखता है dominant सोच से उस समय की। इस काम को अमेरिका के विश्वविद्यालयों ने आगे बढ़ाया लेकिन इसके पीछे एक कारण यह भी था कि अमेरिका में मार्क्सवादी होने को मैकार्थी के समय मे। आपराधिक जैसा बना दिया था।
~Jey Sushil
जो फ्री में सोचता रहता है...
~Sudarshan Juyal
You are…good question.
~Shobha Gupta
जो हमेशा यही सोचता रहता है कि मुफ्त के माल का जुगाड़ कैसे हो।
~Arvind Shekhar
मैं तो यह सोच रहा हूं कि यह सवाल मुझसे क्यों पूछा गया है
~Himanshu Kumar
Aapke bebaak vyaktitva ke karan.
~Syed Mohd Irfan
जब जहां मन करे आओ जाओ!
~Bodhi Sattva
Jo sochne ke paise na le
~Abdul Rasheed
कुछ लोग मुझे फ्री थिंकर समझते हैं और कुछ फ्री में सोचते हैं कि मैं ऐसा नहीं हूँ। बस ये मसला इतना ही सुलझा हुआ है।
* हम इतने फ्री हैं कि सवाल भले किसी और से हो, हम जवाब देने पहुँच जाते हैं।
~Shashi Singh
5 % करते हैं चिंतन और लिखते हैं किताबें। 95 % हो जाते हैं चंदा इकठ्ठा करनेवाले,
चीयर लीडर्स, भाड़े पर भीड़ जुटानेवाले और कुछलोग तो जान देने और लेने के लिए
तत्पर हो जाते हैं। जब तक यह 95 और 5 का अंतर ख़त्म न होगा तब तक कुच्छ भी न होगा।
भड़ास नहीं निकालनी है। ठन्डे दिमाग से सोचना है। एक के बाद एक गलतियां होंगी
लेकिन उन्हीं प्रयोगों से कुछ निकलेगा।
~Gangadin Lohar
फिरी थिंकर होने के लिए ५ किलो नाज की “फिरी” खुराक लेना ज़रूरी होता है!
~Vinod K Chandola
जिसको सोचने के पैसे विचारधारा की दुहाई देकर नहीं दिए जाते
~Sadaf Jafar
आप लुत्ती लगाना भी खूब जानते हैं..
~Vimal Verma
मेरी समझ में विचारधाराओं के घटाटोप में फ़्री थिंकर्स बड़े अहम हैं.. ये ही हैं जो द्वंद्वातीत और अंतिम सत्य की तरह मानी और पेश की जाने वाली विचारधाराओं पर सवाल उठा सकते हैं.. उन पर शक कर सकते हैं..
~Rohit Joshi
यानि और लोग जवाब ना दें, बस लाइक करें
~Atul
Atul ! to kya moi free thinker hai?
~Himanshu B Joshi
भसड़ से समय निकाल कर सोचने वाले को फ्री थिंकर कहते हैं
~AP Mishra
जब थिंकर कुंवारा/कुंवारी होता है
~Haider Z Rizvi
जो सब तरफ रहता है मने. ..
~Sandhya Sandhya
जो फ्री मैं सोचता है
~Vishal Singh
JNU में होते थे एक ज़माने में फ़्री थिंकर। निर्मला सीतारमण उसी फ़्री थिंकर से जुड़ी थी
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