भूलना नहीं चाहिए कि बीवी कारंत के सांगीतिक प्रयोगों को उसकी विश्वसनीयता में पुनर्प्रस्तुत करना और इसके साथ सपाट, सरल दृश्यजगत में असहज कर देने वाले कथ्य को एक सफल अनुभव की तरह खड़ा करना एक बड़ी चुनौती है।
कल शाम नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा की रैपर्टरी का नाटक 'बाबूजी' देखा।
नाटक धीरे धीरे खड़ा हुआ और इसने मेरे मन पर कुल मिलाकर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि टीम ने अच्छी तैयारी और ज़िम्मेदारी के साथ इसे खेला है। एक दर्शक के तौर पर इस प्रस्तुति ने कहीं भी मुझमें अनमनेपन और अरुचि को जन्म नहीं दिया। नौटंकी की इस पारम्परिक शैली से मैं अच्छी तरह परिचित हूँ और इस पारम्परिक शैली के अच्छे-बुरे दौर और चुनौतियों से लेकर अवसान तक का गवाह हूँ। उत्तर भारत की एक बड़ी आबादी इस शैली के असर में रही है और इसका डिजाइन और साउंड उसके अवचेतन में बसा है। नाटक की शुरुआत से ही मेरा मन एक गुदगुदी से भर उठा जिसका निर्वाह प्रस्तुति संपन्न होने तक बना रहा।
बिल्कुल शुरू में जिस नएपन के साथ उद्घोषक ने कुछ औपचारिक घोषणाएं ठेठ देशज अंदाज़ और अनौपचारिक सहजता से कीं वह एक आश्वस्तकारी क्षण था कि आप अजनबी लोगों के हाथों फचीटेजाने वाले नहीं हैं। यह उद्घोषणा करने आए थे शिवप्रसाद गौर जिन्हें बदकिस्मती से मैं पहली बार मंच पर देख रहा था और यहाँ बहुत भरोसे से स्वीकार कर रहा हूँ कि आगे नाटक में अपनी लगभग 3 विभिन्न भूमिकाओं में उन्होंने मुझे पागल ही बना दिया।
कल के इस नाटक पर दो शब्द लिखने की प्रेरणा मुझे शिबू से ही मिली है या यूं कहूँ उनके ऋण को रेखांकित करना भी इस पोस्ट का एक उद्देश्य है। विभांशु वैभव ने बहुत दक्षता से मिथिलेश्वर की कहानी का नाट्य रूपांतरण किया है और राजेश सिंह ने नौटंकी के पारम्परिक ढाँचे में इस नाट्यालेख का प्रवाहमय निर्देशन किया है।
ऐसा प्रवाह उचित आत्मविश्वास के बिना सम्भव नहीं था वरना सह अभिनेता, संगीत, मंच सज्जा, वस्त्रविन्यास, प्रकाश और ध्वनि असम्बद्ध सी रहती। यहां इस खतरे से आगाह रहना ज़रूरी होता है कि महानगर की सांस्कृतिक रूप से विविध दर्शक पंक्ति को एक एक्ज़ॉटिक चमत्कार दिखा कर हतप्रभ करने का इरादा तो बलवती नहीं हो गया। इस असावधानी को दिल्ली का रंगजगत, प्रायः होता देखता आया है। यह बात कहते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि अपनी लुप्तप्राय सांस्कृतिक शैलियों की सीमाओं और सम्भावनाओं के प्रति आदर भाव और दायित्व के बिना संभव नहीं हुआ। इस प्रस्तुति में यह आदर और दायित्व अटूट ढंग से बना हुआ है।
भूलना नहीं चाहिए कि बीवी कारंत के सांगीतिक प्रयोगों को उसकी विश्वसनीयता में पुनर्प्रस्तुत करना और इसके साथ सपाट, सरल दृश्यजगत में असहज कर देने वाले कथ्य को एक सफल अनुभव की तरह खड़ा करना एक बड़ी चुनौती है। बीसवीं सदी के अवसान तक जिस नौटंकी कला का वास्तविक रूप ही न रहा हो उसके साथ इक्कीसवी सदी के प्रस्तुति दल का तादाम्य बिठाना और बिना हास्यास्पद हुए उसे निभा ले जाना एक बड़ी उपलब्धि है।
हाल के वर्षों में नाटकों से सजीव संगीत का स्थान जिस रफ़्तार से प्रीरेकॉर्डेड साउंडट्रैक्स ने लिया है उसने हमारे सौंदर्यबोध को गरीब ही बनाया है। ऐसे में 'बाबूजी' जिस वादे के साथ सभागार में आपका स्वागत करता है वहां लाइव नगाड़े, हारमोनियम, बैंजो, तबले और सारंगी का ऐन्द्रिक ध्वनि वृत्त आपको मोहपाश में लेने से चूकता नहीं। नौटंकी से परिचित दर्शकों के लिए यह छुपा नहीं है कि इसमें संगीत और संवाद इस तरह गुंथे हुए होते हैं कि बोलता हुआ चरित्र कब गाने लग जाएगा प्रायः इसका पता नहीं होता लेकिन दर्शक इसके लिए हमेशा तैयार रहता है।
कहीं कहीं पर नौटंकी के बहुश्रुत गानों में टेम्पो के साथ ली गयी छूट खीझ पैदा करनेवाली तो है लेकिन बिरहा जैसी शैलियों को यहां पिरो लेने के निर्देशकीय स्वातंत्र्य का भी स्वागत होना चाहिए आखिर यह सब हमारे ध्वनि आस्वाद का ही अंग हैं।
जो प्रस्तुति मैंने देखी उसमें निर्देशक राजेश सिंह स्वयं नाटक के मुख्य पात्र का रोल निभा रहे थे जिनके कन्धों पर गायन का एक बड़ा दायित्व रहा, जिसे शायद उन्होंने भी महसूस किया हो कि निभाने के लिए फुलथ्रोट सिंगिंग रेंज की आवश्यकता है जिसमें न सिर्फ वे अपूर्ण नज़र आए बल्कि अक्सर जगहों पर बेसुरे भी सुनाई दिए। शायद वे अगली प्रस्तुतियों में अधिक प्रयास के साथ इसे दूर कर लें और एक सम्पूर्ण आस्वाद का अवसर दें। नाटक का कथ्य क्या है इसे जानने के लिए आपको नाटक देखने खुद जाना चाहिए। मैं एक बार फिर शिबू को अपना प्यार भेजना चाहता हूँ और पूरी टीम को अपनी शुभकामनाएं भी।
Irfan | 23 Dec 2023
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