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मेरे लिए फिल्म का कारोबार पॉपकॉर्न के धंधे से थोड़ा अलग है। अगर आप कोई फिल्म इसलिए देखने जा रहे हैं कि आप अपने एक्सेसिव इमोशंस से मुक्ति चाहते हैं तो मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि आप फिल्म को एक मेन्टल टॉयलेट की तरह ट्रीट करते हैं।
~ मोहन अगाशे, 10 मई 2024, नयी दिल्ली
पिछले हफ्ते डॉक्टर अगाशे के निमंत्रण पर उनकी फिल्म 'आउटहाउस' देखी।
यह एक सादगी से भरी मासूम दुनिया को हमारे सामने लाकर बाज़ार और उपभोक्तावाद के प्रभाव में आत्मकेंद्रित व्यक्तित्वों को आईना दिखाती है और जीने का वही ढंग प्रस्तावित करती है जिसे हम थोड़ा पीछे छोड़ आए हैं।
फिल्म अपने उद्देश्य में बेहद स्पष्ट है। सब कुछ इसलिए भी बहुत सॉर्टेड है क्योंकि फिल्म एक साधारण सी बात को रेखांकित करना चाहती है कि हमारी इच्छाएं, भावनाएं और बेचैनियां हमारी खुद की बनाई हुई नहीं हैं, इन्हें नियंत्रित और आरोपित करने वाली शक्तियों को पहचान कर हम अहममुक्त, सरल और नए बन सकते हैं।
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शर्मिला टैगोर ने जिस कुशलता से कहानी के ढाँचे में खुद को ढाला है वह हैरान करने वाला रहा। डॉक्टर अगाशे हमेशा की तरह अपने चरित्र से न्याय करते दिखे। नीरज कबी, राजेश्वरी सचदेव और सोनाली कुलकर्णी छोटी-छोटी अतिथि भूमिकाओं में भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा गए।
सुनील अभयंकर और प्रदीप जोशी कुशल अभिनेता हैं।
फिल्म के बाल कलाकार जीहान होदर और कुत्ते सिम्बा के बिना फिल्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
गीत और संगीत फिल्म का प्रभाव बढ़ाने वाला है। फिल्म का दृश्य संसार बेहद अपना-अपना सा और सुपरिचित है। रंगों का इस्तेमाल बिलकुल कंटेम्पोरेरी और उल्लास से भरा है जबकि आशा और कल्पना के बीच फिल्म में वास्तविक जीवन के तनाव हमारी चिंताओं का हिस्सा बने रहते हैं।
निर्देशक अपनी सुलझी हुई कहन शैली के प्रति इतना आश्वस्त है कि हमें कहीं भी गैरजरूरी ढंग से उलझने नहीं देता और इस तरह एक संवेदनशील और निर्दोष संसार की संभावना सामने रखकर हमें चकित कर देता है।
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कहानी का ताना बाना
कहानी पुणे शहर में चल रही है। अडिमा रॉय फाटक (शर्मिला टैगोर) अब एक अकेली स्त्री (elderly single) है जो ग्राफिक नॉवेल्स के लिए इलस्ट्रेशंस बनाकर खुद को व्यस्त रखती है। उसकी बेटी वासुमति (सोनाली कुलकर्णी) और दामाद चारुदत्त (नीरज कबी) वर्किंग कपल हैं जिनके बीच उनका बेटा नील (जीहान होदर) ट्रबल्ड पैरेंटिंग से गुज़र रहा है। परिस्थितियां कुछ ऎसी बनती हैं कि नील को उसके माँ बाप नानी के पास छोड़ जाते हैं और साथ ही उसके प्यारे कुत्ते पाब्लो को भी। अगले ही दिन पाब्लो भटकता हुआ नाना मोदक (मोहन अगाशे) के घर पहुँच जाता है जो खुद एक रिटायर्ड (elderly single) लाइफ जी रहा है, किराए के मकान में रहता है और खाली वक़्त में किताबें पढता है या टीवी देखता है। नाना का बेटा निखिल (सुनील अभयंकर) अपने पिता से बंबईवाला घर अपने नाम लिखवाना चाहता है ताकि प्रॉपर्टी पर लोन लेकर अपने बेटे को विदेश पढ़ने भेज सके। लोंढे (प्रदीप जोशी) नाना का पड़ोसी और दोस्त है। दोनों दोस्त एक दूसरे के साथ खासे बेतकल्लुफ हैं।
नील अपने कुत्ते पाब्लो को ढूँढने का प्लान बनाता है अपनी नानी के साथ डिटेक्टिव के भेस में ऑपरेशन शुरू करता है और कामयाब हो जाता है। पाब्लो की तलाश और फिर उसके मिल जाने के बीच एक ऐसा अनुभव खड़ा होता है जो इस फिल्म की जान है। तलाश की इस प्रक्रिया में कहानी के अलग-थलग पड़े सभी पात्र एक दूसरे को नज़दीक से जानना शुरू करते हैं और यहीं यह फिल्म हमें सोचने के लिए छोड़ जाती है कि -
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क्लाइमैक्स तक पहुँचते-पहुँचते अडिमा राय के घर का 'आउटहाउस' एक रूपक की शक्ल तब ले लेता है जब हम यह जानते हैं कि उनके पति की स्मृतियों का वह परित्यक्त कोना, नील से लेकर पाब्लो और नाना से लेकर उनके बेटे निखिल तक के जीवन का एक उम्मीद भरा कोना है।
देखने-सुनने में ऐसे ठुकराए हुए स्थान, लोग और रिश्ते किस तरह मुसीबत में काम आते हैं, इसे हम अपनी आँखों पर सहानुभूति का चश्मा लगाकर आसानी से पहचान सकते हैं। कभी ये आउटहाउस अमीरों के घरों में नौकरों की पराई दुनिया की तरह होते हैं, कभी बहुमंज़िला हाऊसिंग सोसाइटियों के पिछवाड़े डोमेस्टिक हेल्प के लिए बसे लोगों की मामूली दुनिया होते हैं और कभी शहरों के सबर्ब्स, जहां सस्ते मज़दूर अपनी छत पाकर मुनाफ़े में चार चाँद लगाते और वापस लौट जाते हैं। इन सभी स्थितियों में धड़कते हुए दिल जहां सबसे अधिक मिल जाते हैं वो यही आउटहाउस हैं।
आज हम धन, वैभव और पहचान के संकट से जूझ रहे एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ इंसानियत के कोमल पक्ष सबसे ज़्यादा घायल, पस्त और पराजित हैं। हमारी फ़िल्में और वेब सीरीज़ इस संकट से टकराने या इसका काउंटर नरेटिव बुनने के बजाय हवा के साथ बह रहे हैं। यहां करुणा और हमदर्दी में नम होते चरित्रों का सिरे से गायब होना इस बात को पुष्ट करता है कि समाज के आउटहाउसों को देख सकने की नज़र या तो धुंधली हुई है या जानबूझकर नज़र चुराई जाती है।
मशहूर मनोचिकित्सक और अभिनेता डॉ मोहन अगाशे इस चिंता से पूरी तरह बाख़बर हैं और अपने बयानों में इस बात को हमेशा केंद्र में लाते रहते हैं। फिल्म 'आउटहाउस' की स्क्रीनिंग से पहले डॉ अगाशे ने कहा -
"यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिल्ममाध्यम का केवल बिज़नेसवाले लोग अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं। प्रतिगामी सिनेमा या ऐसी कोई भी रिग्रेसिव मनोरंजन सामग्री आपके भीतर पहुंचकर आपका दूरगामी नुक्सान करती है। फिल्मों में इस बात की अपार सम्भावना और शक्ति है कि वह आपको मनोरंजक ढंग से अवेयरनेस और एजुकेशन दे। इस काम को इससे अच्छी तरह घरों में मांएं जानती हैं जो बच्चे को खाने के पौष्टिक तत्वों को बताने के बजाए बच्चे में खाने की दिलचस्पी किसी कहानी के ज़रिये पैदा कर देती हैं।
मनोचिकित्सा और फिल्मों का चोली दामन का साथ है क्योंकि दोनों चीज़ें एक साथ जन्मी हैं। दोनों का आधार भावनात्मक अनुभव हैं। यही भावनात्मक अनुभव हमें उपन्यासों में दिखते हैं जहां सबटेक्स्ट हमें बांधे रहता है जबकि टेक्स्टबुक में कोई सबटेक्स्ट नहीं होता इसलिए उसे पढ़ने की लगन वैसी नहीं होती जैसी उपन्यास को पढ़ने की होती है।
हमारी औपचारिक शिक्षा पूरी तरह कॉग्निटिवली बायस्ड है जहां आपको लिखना और पढ़ना तो सिखा दिया जाता है लेकिन यह नहीं सिखाया जाता कि कैसे देखें या कैसे सुनें ?
मेरी राय में यह देखना और सुनना आपके अनुभव में विस्तार करने का बेहद ज़रूरी पहलू है। तो मेरे लिए फिल्म का कारोबार पॉपकॉर्न के धंधे से थोड़ा अलग है। यहां यह भी कह दूँ कि अगर आप कोई फिल्म इसलिए देखने जा रहे हैं कि आप अपने एक्सेसिव इमोशंस से मुक्ति चाहते हैं तो मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि आप फिल्म को एक मेन्टल टॉयलेट की तरह ट्रीट करते हैं।
मेरी नज़र में एक अच्छी फिल्म वह है जो अपने ख़त्म होने के बाद आपको सोचने पर मजबूर करती है। क्योंकि सोचने से ही आप अपनी कोई राय कायम कर सकते हैं। ऎसी फ़िल्में या मनोरंजन सामग्रियां भी हैं जो आपकी पूर्व धारणाओं या आपकी बनी बनाई राय के आधार पर बेची जाती हैं so I do'nt try to sell you already formed opinion.
जब हम किसी ऐसे लेखक को पढ़ते हैं या जब किसी ऐसे फ़िल्मकार की फिल्म देखते हैं जिसे हम जानते हैं या जिसके काम से हम पहले से परिचित होते हैं, उससे हमारी कुछ उम्मीदें होती हैं और एक बायस के साथ हम उसे पढ़ते या देखते हैं। उस स्थिति में यह बहुत कठिन होता है कि हम एक खाली स्लेट की तरह हों और किताब पढ़ते या फिल्म देखते हुए खुद पर उसके बायलोजिकल तथ्यों के निशान उभरते हुए देखें।"
'आउटहाउस' फिल्म के प्रोड्यूसर डॉ मोहन अगाशे हैं और फिल्म हिंदी में है।
फिल्म की कहानी-पटकथा और संवाद सुमित्रा भावे के लिखे हुए हैं जिनमें ज़रूरी जोड़-घटाव और गीत फिल्म के निर्देशक सुनील सुकथनकर के हैं।
फिल्म सुमित्रा भावे की स्मृति को समर्पित है जिनका 2021 में फिल्म पूरी होने से पहले देहांत हो गया। हम जानते हैं सुमित्रा भावे और सुनील सुकथनकर ने साथ मिलकर कई मराठी और हिंदी फ़िल्में बनाई हैं जिन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है।
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जैसा कि फिल्म की स्क्रीनिंग के मौके पर बांटे गए निमंत्रण में लिखा है-
"आउटहाउस" आज की टॉक्सिक एंटरटेनमेंट की दुनिया में, एक अच्छी डिटॉक्स फिल्म है। इसमें कोई सेक्स नहीं है, कोई हिंसा, युद्ध या कोई हत्या नहीं है। इसमें कोई धार्मिक-राजनीतिक प्रचार या कोई बकवास नहीं है।
देख सकते हैं कि कैसे एक छोटे बच्चे और कुत्ते के बीच की दोस्ती ने दो अकेले बुज़ुर्गों की ज़िंदगी बदल दी।
Irfan 16 May 2024
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