न सिर्फ भाषा और उसमें निहित संकेतों के सन्दर्भ में हम एक जंगल में भटक रहे हैं बल्कि रचनात्मक अभिव्यक्तियों की बारीक कोशिशों का जवाब अपनी स्थूल प्रतिक्रियाओं से दे रहे हैं। डीह्युमनाइजेशन का यह एक अन्य पक्ष है।
कल शाम मैंने दिल्ली में एक नाटक (Play) देखा जिसका नाम था ठेके पर मुशायरा। नाटक के अंत में जब कि रात के साढ़े आठ या नौ का समय था, एक दर्शक ने चिल्लाकर पूछा ठेका कहाँ है?
यहां यह दर्ज करना ज़रूरी है कि दिल्ली और NCR में शराब की दुकान को आम तौर पर ठेका कहा जाता है, मुमकिन है देश के अन्य स्थानों में भी ऐसा चलन हो।
जिस दर्शक ने चिल्लाकर ठेके का पता पूछा, क्या वह नाटक में उस ठेके का इंतज़ार कर रहा था जहां मुशायरा होना था ? हालांकि नाटक में मुशायरा हुआ था लेकिन वह ठेके पर नहीं बल्कि विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर आयोजित एक रंगारंग मंच पर आयोजित किया गया था। चूँकि यह मुशायरा एक मल्टी टैलेंटेड ठेकेदार छांगुर ने मुशायरा पार्टी को बुक कर के कराया था तो नाटक का टाइटिल यही बताना चाह रहा है कि जिस तरह आजकल लिटरेरी फेस्टिवल्स के कॉन्ट्रैक्टर्स की बाढ़ आई हुई है उसी तरह मुशायरे के ठेकेदारों ने मुशायरों का क्या हाल बना रखा है।
न सिर्फ भाषा और उसमें निहित संकेतों के सन्दर्भ में हम एक जंगल में भटक रहे हैं बल्कि रचनात्मक अभिव्यक्तियों की बारीक कोशिशों का जवाब अपनी स्थूल प्रतिक्रियाओं से दे रहे हैं। डीह्युमनाइजेशन का यह एक अन्य पक्ष है।
इरशाद खान सिकन्दर का नाम पहली बार मैंने 2019 में मशहूर नाटककार रंजीत कपूर के मुंह से सुना था। बाद में उनसे गाहे बगाहे फोन पर और मौका ब मौक़ा राह चलते मिलना होता रहा है। अभी 15 पहले मिले तो उन्होंने अपने नए नाटक के मंचन में बुलाया जो कल शाम हुआ।
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