जीवन बीन मधुर ना बाजे The Lives and Times of Shehnai Players on the Fringe

ये हाशिये पर पड़े मेहनतकश और ग़रीब फ़नकारों की दुनिया है जो दुनिया में संगीत की बहुत सी मिठास बिखेरकर अपनी ज़िन्दगी में बस मुट्ठी भर मिठास ही घोल पाते हैं।

उत्तर प्रदेश में कानपुर से 40 किलोमीटर पूरब में एक उनीन्दा सा गाँव मंझावन। धूल उड़ाती गाड़ियों की आवाज़ों में भी दब नहीं पातीं शहनाई की वो मीठी तानें जो सड़क के किनारे बसे गुमनाम शहनाई नवाज़ों के हुनर की निशानदेही करती हैं। कमर झुकी एक बुढ़िया आँगन में झाड़ू लगा रही है, पास ही एक बकरी मे-मे कर रही है और कुछ मनचले लड़के हैंडपंप पर नहाते हुए गा रहे हैं-एक बार आजा आजा आजा आजा आजा।

Wife of a Shehnai player busy cleaning her home Photo Irfan, 2014

अभी-अभी जुआ खेलते कुछ नौजवान पकड़े गये हैं और एक पुलिसवाला उन्हें एक ही रस्सी में बाँधकर रेल बनाए लिए जा रहा है। छोटे बच्चों के लिए ये एक मनोरंजक दृश्य है। कोई अनजान आदमी अगर इस बस्ती में भटकता हुआ पहुँच गया तो इसका मतलब है कि आज कोई बुकिंग आई है।

आते-जाते मुसाफ़िरों की नज़र सड़क के किनारे लगे उन साईनबोर्डों पर ज़रूर पड़ती है जिन पर अलग अलग दिशाओं में खिंचे तीर बताते हैं कि यहाँ शहनाई नवाज़ रहते हैं। एक साईन बोर्ड पेड़ पर लटका है जिस पर लिखा है-‘‘ग़ाजी खान शहनाई नवाज़’’ दूसरा बोर्ड कहता है ‘‘नन्हें मियाँ शहनाई नवाज़’’ और किसी तीसरे चौथे साईन बोर्ड पर लिखा मिलता है ‘‘ग़ुलाम हुसैन शहनाई नवाज़’’ ... ये सिलसिला तब तक ख़त्म नहीं होता जब तक आप मझावन को अपने पीछे धूल और धुँध में डूबता नहीं छोड़ जाते। ये सवाल शायद ही किसी के ज़हन में आता हो कि इतने सारे शहनाई नवाज़ यहीं मंझावन में क्यों रहते हैं ?

चौधरी नूरनबी की उम्र आज कोई 76 साल है। आज भी वो बड़ी लगन और शौक के साथ शहनाई बजाते हैं। आख़िर आप लोग मंझावन में ही आकर क्यों बसे ? कहाँ से आए ? ये शहनाई का पेशा आप लोगों ने क्यों अपनाया ? 

चौधरी नूरनबी को बस इतना ही मालूम है कि जब से उन्होनें आँखें खोली हैं ख़ुद को शहनाई के बीच पाया है। ‘‘हमारे तो बाप, दादा, परदादा नगड़दादा सब शहनाई ही बजाते थे। शहनाई हमारा पुश्तैनी पेशा है। अब मालूम नहीं क्यों, लेकिन जब भग्गी मची (1857 का ग़दर हुआ) तो हमारे पुरखे रीवाँ महाराज के दरबार से दर-ब-दर हो गए। उन्हें कोई यहाँ लाया या वो ख़ुद यहाँ बसे, नहीं मालूम।’’

Inside the house of a Shehnai Player Photo Irfan

चौधरी नूरनबी अतीत की उन पेचीदा गलियों में जाना भी नहीं चाहते। उन्हें तो अब मझावन और वहाँ की ज़िन्दगी ही असल जान पड़ती है। खेती के लिए ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा है जिस पर वो ऑफ़-सीज़न में काम करते हैं और अपने घर का पेट पालते हैं। शास्त्रीय रागों पर उनकी अच्छी पकड़ है। आजकल वो रियाज़ के लिए उतना वक़्त भले ना निकाल पाते हों पर जब बजाते हैं तो उनसे रागों की बारीकियाँ नहीं छूटतीं। छोटा बेटा मिट्टी से सने हाथ धोकर जल्दी-जल्दी नाल के सुर ठीक करता है। पहले भैरवी फिर मालकौंस और फिर एक धुन... बजाते बजाते चौधरी साहब थक गए हैं। बताते हैं कि जब सीज़न होता है (यानि शादी-ब्याह का सीज़न) तो हम लोग कोई दो तीन महीने काफी बिज़ी रहते हैं।

Daily life in Majhawan Photo Irfan 2014

आए दिन कोई न कोई पार्टी हमें बुलाने आ जाती है। कभी बाँदा, कभी हमीरपुर, कभी झाँसी तो कभी लखनऊ। कभी कभी तो हम लोग छतरपुर और इलाहाबाद तक चले जाते हैं। अब उतने कद्रदान नहीं रहे और नई पीढ़ी के रईसों में शौक और सब्र नहीं रहा वरना हम लोग तो रात रात भर पक्के राग रागिनियाँ बजाया करते थे। उसी हिसाब से हमारी शहनाई नवाज़ों की एक पौध भी मेहनत से जी चुराती है... धीरे धीरे इन लड़कों में भी क्लासिकल की तरफ से मन हट रहा है। अब ज़्यादातर बजवैये भजन, ग़ज़ल, धुनें या फिर फ़िल्मी गाने बजाते हैं।

A family elder of a Shehnai player Photo Irfan, 2014

ये शहनाई नवाज़ शायद ही कभी ये जान पायेंगे कि आज शहनाई नवाज़ उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है। अगर जान भी जाएंगे तो इससे उनकी ज़िन्दगी की जद्दो-जहद कम नहीं होगी। ये हाशिये पर पड़े मेहनतकश और ग़रीब फ़नकारों की दुनिया है जो दुनिया में संगीत की बहुत सी मिठास बिखेरकर अपनी ज़िन्दगी में बस मुट्ठी भर मिठास ही घोल पाते हैं।

Haveli of my Grand parents in Jahanabad, close to Majhawan Photo Rohit Umrao, 2016

चौधरी नूरनबी बताते हैं कि उनकी मुलाक़ात एक बार बिस्मिल्लाह ख़ाँ से तब हुई थी जब वो शहनाई खरीदने के सिलसिले में बनारस गए थे और तब बिस्मिल्लाह ख़ाँ उतने बड़े नाम नहीं थे, बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने उनसे कहा था कि अगर आप लोग भी गाँव से बाहर निकलें और रेडियो वगैरह पर आने लगें तो आगे जा सकते हैं। चौधरी साहब तो यही मानते हैं कि गाँवों में सब राज़ी खुशी रहें और सब्ज़ी बेचने, ठेला लगाने, रिक्शा खींचने के बाद जो वक़्त मिलता है उसमें अपनी शहनाई को ज़िंदा रख सकें।

Documentary made by me for Rajya Sabha TV in 2014
This article was written in 2004 by Irfan

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Syed Mohd Irfan

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Broadcast Journalist | Archivist | Music Buff | Founder Producer and Host of the longest running celebrity Talk Show Guftagoo on TV and Digital #TEDxSpeaker #Podcaster #CreativeWriter