Description
एक घर, जो हवा में तैरता है
जब वो घर था, तब दुनिया में कुछ नहीं था। न सड़कें थीं, न कारख़ाने, न चौराहे थे, न लोग। दुनिया में कोई हिमालय नहीं था, कोई समंदर भी नहीं. कोई आग नहीं थी, कोई पानी नहीं. तब कोई भाषा भी नहीं थी. सिर्फ़ दो लोग थे। उन दोनों ने रहने के लिए एक घर बनाया था, जिसकी दीवार हवा की थी। छत हवा की थी। फ़र्श भी हवा की। हवा की दीवार में से थोड़ी-सी हवा निकाल कर उन दोनों ने हवा की एक खिड़की बना दी थी। इसी तरह हवा का एक दरवाज़ा। उन दोनों के पास कोई भाषा भी नहीं थी। गूं-गूं करती कोई आवाज़ थी। वह आवाज़ भी एक घर ही थी, जिसमें वे दोनों वैसे ही रहते थे, जैसे बेदरो-दीवार के उस हवाघर में. वहां कभी घुटन नहीं होती थी. हर वक़्त हवा आती थी. जाती भी थी.
एक दिन भाषा बन गई। भाषा में सबसे पहले प्रार्थना ईजाद नहीं हुई थी। यह हमारी ग़लतफ़हमी है। भाषा में सबसे पहले नफ़रत और गाली ईजाद हुई। किसी विचारक ने कहा था कि भाषा में सबसे पहले प्रेम के लिए शब्द खोजा गया था. ग़लत था वह विचारक. प्रेम को भाषा की ज़रूरत थी ही नहीं.
तो भाषा में सबसे पहले गाली आई, जो साफ़ तौर पर एक स्त्री को दी गई थी। फिर दुनिया फलने-फूलने लगी। फिर समंदर बना। फिर हिमालय. फिर दर्रे. घाटियां. झाडियां और फूल. कांटे भी साथ-साथ ही बने. सड़कें बनीं. इमारतें भी. उनसे पहले थोड़ी सी आग भी बन गई थी. वह दो पत्थरों के बीच रहती थी और तभी दिखती थी, जब पत्थर आपस में लड़ पड़ें. फिर बहुत सारे लोग भी बन गए। वे पत्थरों की तरह कई बार लड़ पड़ते थे और आग पैदा करते थे।
वे दोनों चुप अपने हवाघर में रहते थे। किसी समय लोग आपस में पत्थरों की लड़ पड़े, जिससे आग पैदा हो गई। चिंगारियां उस हवाघर पर पड़ीं और वह जलने लगा। हवा की दीवार, हवा की खिड़की, हवा की छत, हवा की फ़र्श, सब जलने लगे। हवा का वह घर जल गया। हवा में ही बचा हुआ है अब। वे दोनों उसमें रहते थे, अब बेघर होकर भटकते हैं। न वह घर किसी को दिखता है, न उसमें रहने वाले वे दोनों। कहते हैं, हवा हो जाने का मतलब कभी दिखाई न पड़ना है।
पर मुझे अब भी अपने आसपास ही दिखता है हवा का वह घर। हवा जैसे वो दोनों रहने वाले। आंखों पर पानी का परदा चढ़ाकर देखें, तो शायद आपको भी दिख जाएंगे वे दोनों. और हवा में तैरता उनका एक घर. दिख रहे हैं न?
- शायदा बानो in her first blogpost
Features Image Courtesy W Lougee Internet Archive
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