
अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के आह्वान पर मृणाल सेन और सलिल चौधरी काकद्वीप में चल रहे किसानों के तेभागा आंदोलन में भी सक्रिय रहे जिसने उनकी कला में गहरे मानवीय स्पर्श की बुनियाद रखी।
कोलकाता पहुंचने पर मैं बार-बार सुन रहा था कि मृणाल दा बीमार हैं और अब किसी को इंटरव्यू नहीं देते हैं। उस दिन गौतम हालदार के साथ दोपहर बाद का वक्त तय था, लेकिन हालात कुछ इस तरह मोड़ लेते गए कि शाम होने तक स्पष्ट होने लगा था कि आज का दिन बिना किसी रिकॉर्डिंग के निकल जाएगा। हमारे कैमरामैन अनिर्बाण साधु ने एक साहसिक फरमान सुनाया ‘मृणाल दा को ट्राई करते हैं।’
एक घंटे के अंदर हमारी गाड़ी पद्दापुकुर रोड स्थित मृणाल दा के घर के सामने थी, जहां एक फ्लैक्स बैनर लटका था, जिसमें मृणाल दा को जन्मदिन की बधाइयां दी गई थीं। यह 22 मई 2016 की शाम थी। सीढ़ियां चढ़ते हुए जब हम घर के भीतर पहुंचे तो बैठक के कमरे में मृणाल दा की एक बड़ी सी ब्लैक एंड वाइट तस्वीर टंगी थी जिसमें वह सेट पर ऐक्शन की कमांड जैसी देते दिख रहे थे।

अस्पताल के बिस्तरों जैसे दो बिस्तर अगल-बगल लगे थे और जिनमें से एक पर फिल्मकार मृणाल सेन अपना सिग्नेचर चश्मा लगाए लेटे थे और दूसरे बिस्तर पर उनकी पत्नी अभिनेत्री गीता सेन थीं। दोनों ही बढ़ती उम्र की बीमारियों से जूझ रहे थे। घर में एक नर्स थी जो उनकी देखभाल के लिए 24 घंटे तैनात थी। कमरे में मुश्किल से एक कैमरा लगाने की जगह थी जबकि बातचीत के बीच-बीच में मृणाल दा बातें या तो दोहरा रहे थे या बोलते हुए भूल रहे थे। बगल के बिस्तर से गीता सेन उन्हें कुछ याद दिलाने की कोशिश कर रही थीं या खुद भी कुछ कहना चाह रही थीं।

शायद ये मृणाल सेन और गीता सेन की आखिरी कोई टीवी रिकॉर्डिंग थी जिसके 8 महीने बाद गीता सेन का देहांत हो गया। अब मृणाल सेन के देहांत की खबर सुनकर उस मुलाकात की यादें बरबस ही एक के बाद एक आती जा रही हैं। मैं उनके सिरहाने बैठा उनकी हल्की आवाज की हर आहट को समझना चाह रहा था और वे बार-बार अपने मुलायम हाथों से मेरा हाथ पकड़े शायद समझाने की कोशिश कर रहे थे।

नए सिनेमा का आस्वाद मैंने फिल्म सोसायटी मूवमेंट के तहत दिखाई जाने वाली फिल्मों से सीखा है, जिसकी शुरुआत कोलकाता में जिन आठ प्रमुख लोगों ने की थी, मृणाल सेन उनमें से एक थे। देश से लेकर विदेश तक अपनी फिल्मों से चर्चा में रहे मृणाल सेन उन विशिष्ट फिल्मकारों में थे, जिन्होंने अपनी कला में निरंतर प्रयोग किए। उन्होंने परिवर्तन को शाश्वत माना और साबित किया कि उनकी कला समय के साथ बदलती रही है। अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को कला में हर पल जीवंत रखने की जद्दोजहद में मृणाल सेन ने तकनीक और फिल्म कला के विविध उपांगों का इस तरह इस्तेमाल किया कि वह अच्छी फिल्म देखने के अनुभव को उत्तरोत्तर समृद्ध करता रहा।

याद रखना चाहिए कि पूरी तरह फिल्म निर्माण में उतरने से पहले मृणाल सेन हर रूप में फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीखने, फिल्म सिद्धांतों से खुद को लैस करने और तत्कालीन विश्व सिनेमा पर पैनी नजर रखने के साथ साथ सामाजिक-राजनीतिक हलचलों के बीच में रहे। अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के आह्वान पर मृणाल सेन और सलिल चौधरी काकद्वीप में चल रहे किसानों के तेभागा आंदोलन में भी सक्रिय रहे जिसने उनकी कला में गहरे मानवीय स्पर्श की बुनियाद रखी। यथार्थ को कलात्मक अनुभव के रूप में प्रस्तुत करते हुए मृणाल सेन ने तमाम स्थापित और क्लासिकी तरीकों को बदला और इस तोड़-फोड़ से खुद बांग्ला भद्रलोक असहज हुआ। उनकी बनाई हिंदी की पहली फिल्म ‘भुवन शोम’ आज भी भारत के नए सिनेमा का प्रस्थान बिंदु समझी जाती है।

मनुष्य की अंतरंग कोमल भावनाओं को संतुलित, गंभीर और कलापूर्ण ढंग से कहने का उनका ढंग निराला था। मेरे लिए मृणाल सेन एक ऐसे बेचैन फिल्मकार ही बने रहेंगे जो अपनी बनाई धारणाओं का गुलाम नहीं है बल्कि द्वंद्वात्मकता में यथार्थ और अपनी कला के बीच लगातार एक छटपटाहट से गुजरता है।
Published in Nav Bharat Times NBT एडिट पेज
01 January 2019
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