
उनकी आवाज़ मोहब्बत, दर्द और तड़प से भरी थी। इस तरह वो आवाज़ जैसे ग़ज़ल के लिए ही बनी थी जिसमें इश्क ए मजाज़ी और इश्क ए हकीकी एक सी रवानी में पेश होते हैं। गाते वक्त वो जोश में होतीं और उन्हें अच्छी तरह होश होता था कि वो क्या गा रही हैं। हालांकि ग़ज़ल के साथ तरन्नुम का सिलसिला पुराना है क्योंकि इसकी अपनी एक भीतरी लय होती है जिसे शायर से लेकर तवायफ़ और फ़क़ीर तक बड़ी आसानी से पेश कर देते हैं। बेगम अख्तर को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने ग़ज़ल गायकी को क्लासिकल म्यूजिक की बराबरी तक पहुंचा दिया।
बेगम अख्तर उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद में 1914 में पैदा हुई थीं। घर में माहौल गायकी का था। बचपन में ही उनमें गायकी के गुण देखकर उस दौर के नामी उस्तादों से बेगम अख्तर को संगीत की शिक्षा दिलाई गयी। आगे चलकर उन्होंने अपनी गायकी को संवारा और खिलकर ऐसी खूबसूरत गायिका बनीं जो रियासतों के दरबारों से लेकर निजी संगीत महफिलों और फिल्मों तक में पसंद की जाने लगीं। 1930 के दशक में, तवायफ़े बड़ी क़द्दावर औरतें हुआ करती थीं जिन्हें अपनी ज़िंदगी पर नाज़ था और अपने फैसले वो खुद लिया करती थीं। उनके पास ऐशो आराम थी, दौलत और शोहरत थी, ज़मीन जायदाद थी और वो समाज को तहज़ीबी सतह पर मालामाल करती थीं। जैसे जैसे देश में आज़ादी की हलचलें बढ़ीं, उसने उथल पुथल मचा दी। रियासतों और रजवाड़ों का नए राष्ट्र में विलय नज़दीक था जिसका असर अमीर- उमरा के रहन-सहन को बदल देने वाला था। कामयाब लेकिन अकेली औरतों पर ये दबाव बढ़ने लगा कि वो घर बसा लें और चूल्हे चक्की में लग जाएं। ऐसे में बेगम अख्तर ने भी 1945 में लखनऊ के एक मशहूर बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद अब्बासी से शादी कर ली और जितना हो सकता था, एक गृहस्थ ज़िंदगी में खुद को झोंक दिया।
शादी के बाद कुछ अरसे के लिए बेगम अख्तर ने गाना बंद कर दिया। लेकिन संगीत उनका प्यार था जिससे बहुत देर तक अलग रह पाना उनके लिए संभव नहीं था। उनके पति ने इस बात को समझा और धीरे धीरे वो मौके मुहैया कराये जिनसे संगीत की महफिलों में वो अपनी प्रतिभा को निखार सकें।
बेगम अख्तर की मौजूदगी में न सिर्फ लखनऊ में संगीत की शामें खुशनुमा हो गयीं बल्कि मुल्क की सतह पर भी ग़ज़ल के लिए शौक खिलने लगा। वो एक तरफ तो ग़ालिब, मीर, मोमिन और दाग़ के कलाम गातीं और दूसरी तरफ उनके समकालीन जिगर मुरादाबादी और हफ़ीज़ जालंधरी भी होते। जब कोई शायर उन्हें अपनी गजल गाने को देता तो अक्सर वो वहीं उसकी धुन तैयार करतीं और बड़े शौक से अपने मख़सूस अंदाज़ में गातीं।
बेगम अख्तर की गायकी में ऐसा क्या था और क्यों वो आज भी अपनी ताज़गी बनाए हुए है ?
ये ठीक है कि बेगम अख्तर की आवाज़ दमदार है लेकिन जो बात हमें सबसे अच्छी लगती है वह है सोची समझी न्यूनतम सांगीतिक सजावटें। संगीत के सरोवर में वो शेर के किसी एक शब्द को डूबने नहीं देना चाहतीं बल्कि अदायगी के दौरान एक एक शब्द उभर कर अपनी चमक में ज़ाहिर हो इसकी वो बार बार कोशिश करती हैं। एक उपशास्त्रीय गायिका के रूप में स्थापित हुई बेगम अख्तर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में पारंगत थीं इसलिए भी अपने इस कौशल को वे शायरी की सुंदरता बढ़ाने में इस्तेमाल कर पायीं।

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