Description
84 वर्षीय नरेश सक्सेना पेशे से इंजीनियर रहे हैं। फ़िल्में और टीवी धारावाहिक बनाते रहे हैं। उनको अपनी फिल्म के लिए 1991 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के स्पेशल जूरी अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। अपनी कविता गिरना के ज़रिये आज सोशल मीडिया तक पर प्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना ने कल शाम हमें बताया कि अपने कॉलेज के दिनों में वो शहर के एक कुशल बांसुरी वादक थे और सिंगर मुकेश के एक लाइव कंसर्ट में उनके साथ माउथ ऑर्गन भी बजा चुके हैं। साथ ही उन्होंने माउथ ऑर्गन पर कुछ धुनें बजाकर हैरान कर दिया।
पेश है एक झलक। इस मुलाक़ात के बाक़ी ब्योरे यहां समय समय पर जारी किये जाएंगे।
अगर आप नरेश जी से हुई लम्बी गुफ़्तगू सुनना चाहते हैं तो मेरा पॉडकास्ट चैनल यहां फॉलो कर लें।
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गिरना
चीजों के गिरने के नियम होते हैं मनुष्यों के गिरने के
कोई नियम नहीं होते’
लेकिन चीजें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य’ कर सकते हैं
बचपन’ से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर’ मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफाफे’ में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे’ में बचे रहो, यानी
शब्दों’ में बचे रहो
अर्थों में गिरो
यही सोच’ कर गिरा भीतर
कि औसत’ कद का मैं
साढ़े पाँच फीट से ज्यादा क्या गिरूँगा’
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह’
कि गिरना मेरा खत्म’ ही नहीं हो रहा
चीजो के गिरने की असलियत का पर्दाफाश हुआ
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहाँ, पीसा की टेढ़ी मीनार की आखिरी सीढ़ी
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है –
‘इटली के लोगो,
अरस्तू का कथन है कि, भारी चीजें तेजी से गिरती हैं
और हल्की चीजें धीरे’ धीरे
लेकिन अभी आप’ अरस्तू के इस सिद्धांत को
गिरता हुआ देखेंगे’
गिरते हुए देखेंगे, लोहे के भारी गोलों
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और कागजों और
कपड़ों की कतरनों’ को
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान’
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप’ से मुक्त करना होगा,’
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया
चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार’ से चिल्ला कर कहने की जरूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीजों के गिरने’ के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है
और लोग
हर कद’ और हर वजन के लोग
खाये पिये और अघाये लोग
हम लोग’ और तुम लोग
एक साथ
एक गति’ से
एक ही दिशा में गिरते’ नजर आ रहे हैं
इसीलिए’ कहता हूँ कि गौर से देखो, अपने चारों तरफ
चीजों का गिरना’
और गिरो
गिरो जैसे गिरती’ है बर्फ
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती हैं’ मीठे पानी की नदियाँ
गिरो प्यासे हलक’ में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत’ से भरते हुए
गिरो आँसू’ की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह’ गिरो
खेलते बच्चों’ के बीच
गिरो पतझर’ की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल’ के लिए जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं’ का गीत
‘कि जहाँ पत्तियाँ’ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं’ आता’
गिरो पहली’ ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए
गिरो जलप्रपात’ की तरह
टरबाइन’ के पंखे घुमाते हुए
अँधेरे पर रोशनी की तरह गिरो
गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष’ रचते हुए
नरेश सक्सेना की कविता
लेकिन रुको’
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष’ ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा’ गया
तो गिरो, उससे छूटे तीर की तरह
बंजर जमीन को
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन’ बनाते हुए
बारिश की तरह गिरो, सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह’
धरती को अपने बीज सौंपते हुए
गिरो’
गिर गए बाल
दाँत’ गिर गए
गिर गई नजर और
स्मृतियों’ के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीखें, और शहर और चेहरे…
और रक्तचाप’ गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है खून’ में निकदार होमो ग्लोबीन की’
खड़े क्या हो बिजूके से नरेश’
इससे पहले कि गिर जाए समूचा’ वजूद
एकबारगी’
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वजह और वक्त
और गिरो’ किसी दुश्मन पर
गाज की तरह’ गिरो
उल्कापात की तरह गिरो’
वज्रपात की तरह गिरो’
मैं कहता हूँ।
नरेश सक्सेना
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